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________________ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं [७१ पूजा पुष्फ बलि-संख-तूर-रव-संकुला कदा । तं दट्टण तस्स 'भूदबलि' त्ति भडारएण णामं कयं । अवरस्स वि भूदेहि पूजिदस्स अत्थ वियत्थ-हिय-दंत-पंतिमोसारिय भूदेहि समीकय-दंतस्स 'पुप्फयतो' त्ति णामं कयं ___पुणो तद्दिवसे चेव पेसिदा संतो 'गुरु-वयणमलंघणिजं ' इदि चिंतिऊणागदेहि अंकुलेसरे वरिसा-कालो कओ । जोगं समाणीय जिणवालियं ददृण पुप्फयंताइरियो वणवास-विसयं गदो। भूदबलि-भडारओ वि दमिल-देसं गदो । तदो पुप्फयंताइरिएण जिणवालिदस्स दिक्खं दाऊण वीसदि-सुत्ताणि करिय पढाविय पुणो सो भूदवलि-भयवंतस्स पासं पेसिदो । भूदबलि-भयवदा जिणवालिद-पासे दिह-चीसदि-सुत्तेण अप्पाउओ त्ति अवगय-जिणवालिदेण महाकम्म-पयडि-पाहुडस्स वोच्छेदो होहदि त्ति समुप्पण्ण-बुद्धिणा पुणो दव्य-पमाणाणुगममादिं काऊण गंथ-रचणा कदा। तदो एयं खंड-सिद्धृतं पडुच्च भूदबलि-पुप्फयंताइरिया वि कत्तारो उच्चंति । उन दोनोंमेंसे एककी पुष्पावलीसे तथा शंख और तूर्य जातिके वाद्यविशेषके नादसे व्याप्त बड़ी भारी पूजा की। उसे देखकर धरसेन भट्टारकने उनका 'भूतबलि' यह नाम रक्खा । तथा जिनकी भूतोंने पूजा की है, और अस्त-व्यस्त दन्तपंक्तिको दुर करके भूतोंने जिनके दांत समान कर दिये हैं ऐसे दुसरेका भी धरसेन भट्टारकने 'पुष्पदन्त ' नाम रक्खा । तदनन्तर उसी दिन वहांसे भेजे गये उन दोनेने 'गुरुके वचन अर्थात् गुरुकी आज्ञा अलंघनीय होती है ' ऐसा विचार कर आते हुए अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षाकाल बिताया। वर्षायोगको समाप्तकर और जिनपालितको देखकर ( उसके साथ) पुष्पदन्त आचार्य तो वनवासको चले गये और भूतबलि भट्टारक भी द्रमिल-देशको चले गये। तदनन्तर पुष्पदन्त आचार्यने जिनपालितको दीक्षा देकर, वीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणाके सूत्र बनाकर और जिनपालितको पढ़ाकर अनन्तर उन्हें भूतबलि आचार्यके पास भेजा। तदनन्तर जिन्होंने जिनपालितके पास वीस प्ररूपणान्तर्गत सत्प्ररूपणाके सूत्र देखे हैं और पुष्पदन्त आचार्य अल्पायु हैं इसप्रकार जिन्होंने जिनपालितसे जान लिया है, अतएव महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद हो जायगा इसप्रकार उत्पन्न हुई है बुद्धि जिनको ऐसे भगवान् भूतबलिने द्रव्यप्रमाणानुगमको आदि लेकर ग्रन्थ-रचना की। इसलिये इस खण्डसिद्धान्तकी अपेक्षा भूतबलि और पुष्पदन्त आचार्य भी श्रुतके कर्ता कहे जाते हैं। १ . द्वितीय दिवसे ' इति पाठः । इन्द्र. श्रुता. १२९. २ 'स्वभागिनेयं' इति विशेषः । इन्द्र. श्रुता. १३४. ३ वाञ्छन् गुणजीवादिकविंशतिविधसूत्रसत्प्ररूपणया । युक्तं जीवस्थानाधधिकारं व्यरचयत्सम्यक् ॥ इन्द्र. श्रुता. १३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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