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________________ जीवसमुदाहारे अप्पाबहुअं ३१६ बंधगा जीवा असंखेंजगुणा । अजहण्णमणुकस्सपदेसबंधगा जीवा असंखेंजगुणा । एवं सासण-सम्मामि० | सण्णीसु पंचणा०-चदुदंसणा०-सादावे-चदुसंज०-पुरिस०जसगित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइगाणं च सव्वत्थोवा उक्कस्सपदेसबंधगा जीवा। जहण्णपदेसबंधगा जीवा असंखेंजगुणा । अजहण्णमणुकस्सपदेसबंधगा जीवा असंखेजगुणा । एवं चदुण्णमाउगाणं णाणावरणभंगो। आहारदुगं तित्थयरं च ओघं। सेसपगदीणं सव्वत्थोवा जहण्णपदेसबंधगा जीवा । उक्कस्सपदेसबंधगा जीवा असंखेंजगुणा । अजहण्णमणुकस्सपदेसबंधगा जीवा असंखेंजगुणा । एवं एदेण बीजेण चिंतेदण णेदव्वं भवंति । आहार० ओषो । अणाहार० कम्मइगकायजोगिभंगो । एवं अप्पाबहुगं समत्तं । एवं जीवसमुदाहारे त्ति समत्तमणियोगद्दारं । __ एवं पदेसबंधो समत्तो। एवं बंधविधाणे ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं चदुविधो बंधो समत्तो। णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवझायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए । संज्ञी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यश कीति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार चार आयुओंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार विचार कर ले जाना चाहिए । आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इस प्रकार अल्पबहत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार जीवसमुदाहार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। इस प्रकार प्रदेशबन्ध समाप्त हुआ। इस प्रकार बन्धन अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। इस प्रकार चार प्रकारका बन्ध समाप्त हुआ। अरिहन्तोंको नमस्कार हो, सिद्धोंको नमस्कार हो, आचार्योंको नमस्कार हो, उपाध्यायोंको नमस्कार हो और लोकमें सब साधुओंको नमस्कार हो। १. आ प्रती 'सादावे० पुरिस०' इति पाठः । २. ता० प्रती 'पदेसबंध समत्तं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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