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________________ अज्झवसाणसमुदाहारे अप्पाबहुगं ३१३ जह० पदे०चं० जीवा । उक्क० पदे ०बं० जीवा संजगु० । अजह०मणु० पदे०चं० जीवा संजगु० । वरि पंचणा० छदंस० सादा० - बारसक० सत्तणोक० - जस ० उच्चा० - पंचंत ० सव्वत्थोवा उक्क० पदे०चं० जीवा । जह०पदे०चं० जीवा संखेजगु० । अजह०मणु ०૦૨૦ पदे०चं० जीवा संखजगु० । मणुसअपज० णिरयभंगो | । ३४८, पंचिंदिय-तसाणं देवगदि०४ सादाणं ओघं । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । पंचिंदियपज्जत्तगेसु थीणगिद्धि ०३ - असाद०-मिच्छ - अनंताणु ०४ - इत्थि०णवंस० - देवर्गादि४- पंचसंठा० - पंचसंघ ० पर ० उस्सा ० - आदाउजो० पसत्थ० - प - पज्जत्त-थिरसुभ-सुस्सर-आदे० - णीचा० सव्वत्थोवा जह० पदे ० बं० जीवा उक्क० पदे० बं० जीवा असं० गु० | अजहण्णमणु० पदे ० बं० जीवा असं० गु० | पंचणा० छदंस० - सादा०-बारसक०सत्तणोक० - चदुआउ०- तिष्णिगदि-पंचजादि-ओरालि० - तेजा० क० - हुंड० - ओरालि०अंगो० - असं प ० - वण्ण ०४ - तिण्णिआउ०- अगु० -उप० अप्पसत्थ०-तस थावर बादर - सुहुमअपज्ज०- पत्ते ० - साधार०- अथिरादिछक्क जसगि० - णिमि० उच्चागो०- पंचंत० सव्वत्थोवा उक्क० पदे०चं० जीवा । जह० पदे० बं० जीवा असं० गु० । अजह० मणु०पदे०चं० जीवा असं ० गु० | आहारदुगं तित्थय० ओघं । एवं तसपजत्त० । - जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उत्कृष्ट प्रदेशों के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि पाँच ज्ञानावरण, छहदर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्य अपर्याप्तकों में नारकियोंके समान भङ्ग है । Jain Education International - ३४८. पचेन्द्रिय और त्रस जीवोंमें देवगतिचतुष्कका भङ्ग ओधके समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पचेन्द्रिय तिर्यों के समान है। पचेन्द्रिय पर्याप्तकों में स्त्यानगृद्धित्रिक, असातावेदनीय, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, देवगतिचतुष्क, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, परघात, उच्छ्रास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, स्थिर, शुभ, सुस्वर, आदेय और नीचगोत्रके जघन्य प्रदेशोंका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, चार आयु, तीन गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्ता सृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, तीन आयु, अगुरुलघु, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, अस्थिर आदि छह, यशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग ओके समान है । इसी प्रकार त्रसपर्याप्तक जीवों में जानना चाहिए । ४० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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