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________________ वडिबंधे खेत्तं २७६ ३१५. सासण-सम्मामि० सव्वपगदीणं सव्वपदा असंखेंजा। णवरि सासणे मणुसाउ० सव्वपदा संखेंजा। ___एवं परिमाणं समत्तं । खेतं ३१६. खेत्ताणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघेण पंचणा०-णवदंसणा०मिच्छ०-सोलसक० - भय - दु०-ओरालि० - तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०पंचंत० चत्तारिवड्डि-हाणि-अवद्विदबंधगा केवडि खेते ? सव्वलोगे । अवत्त० केवडि खेत ? लोगस्स असंखेंजदिमागे । एसिं अणंतभागवड्डि-हाणी अत्थि तेसिं लोगस्स विशेषार्थ-जो मनुष्य उपशमसम्यक्त्वके साथ मर कर देव होते हैं, उनके प्रथम समयमें मनुष्यगति पञ्चकका अवक्तव्य पद होता है और उपशमश्रोणिसे उतरते हुए उपशमसम्यग्दृष्टि मनुष्यों के देवगति चतुष्कका अवक्तव्यपद होता है। यतः ये संख्यात ही होते हैं, अतः यहाँ इनका परिमाण उक्तप्रमाण कहा है। इनमें चार दर्शनावरणकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि भी उपशमश्रेणिमें होती है, इसलिए इनके बन्धक जीवोंका परिमाण भी संख्यात कहा है। इनमें आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात होते हैं, यह स्पष्ट ही है। तथा उपशम सम्यग्दर्शनमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ मनुष्य ही करते हैं और ऐसे मनुष्य उपशमश्रोणिमें यदि मरते हैं,तो देवोंमें भी अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर संचित हुए तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि देव देखे जा सकते हैं। यतः ये सब जीव भी संख्यात ही होते हैं, अतः यहाँ तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ३१५. सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोमें सब प्रकृतियों के सब पदों के बन्धक जीव असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों में मनुष्यायुके सब पदों के बन्धक जीव संख्यात हैं। विशेषार्थ-यद्यपि सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों में परिमाणका निर्देश पहले आ चुका है। उस हिसाबसे यह पुनरुक्त हो जाता है,पर हमने यहाँ मूलके अनुसार ही रहने दिया है । पहले सम्यग्मिथ्यादृष्टि पदका भी मूलमें निर्देश किया है,पर उसे उसी स्थल पर टिप्पणीमें दिखला दिया है । एक तरहसे यह पूरा प्रकरण त्रुटित और पुनरुक्त है। किसी प्रकार उसे सम्हाला है। इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ। क्षेत्र ३१६. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है? सर्वलोक क्षेत्र है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। जिनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि है, उनके इन पदोंके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें १. ताप्रती एवं परिमाणं समत्तं' इति पाठो नास्ति । २. ता.प्रतौ 'असंखेजदिभागो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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