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________________ २३७ वडिबंधे अंतरं अंतरं २७६. अंतराणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा-तेजा-क०वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० दोवड्डि-हाणिबंधंतरं केवचिरं कालादो० ? जह. एग०, उक्क० अंतो०। दोवड्डि-हाणि-अवट्ठिदबंधंतरं केवचिरं० १. जह० एग०, उक्क० सेढीए असंखेंज० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अद्धपोग्गल । थीणगिद्धि०३मिच्छ०-अणंताणु०४ असंखेंजभागवड्डि-हाणि-असंखेजगुणवड्डि-हाणि० जह० एग०, उक्क० वेछावढि० देसू० । दोवड्वि-हाणि अवढि०-अवत्त० णाणाभंगो। छदंस०-चदुसंज० अनुसार सर्वत्र बन जाती है, इसलिए अनाहारक मार्गणातक इसी प्रकार जानना चाहिए यह कहा है । मात्र जिन मार्गणाओंमें कुछ विशेषता है उनमें उसका अलगसे निर्देश किया है। यथा-औदारिकमिश्रकाययोगी मार्गणामें अन्य प्रकृतियोंके सम्भव पदोंका काल तो ओघके समान बन जाता है,पर देवगतिपञ्चककी मात्र असंख्यातगुणवृद्धि ही होती है, और इस मार्गणाका जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इसमें इन पाँच प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें यद्यपि सामान्यसे सब प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते कहा है,पर यह काल परावर्तमान प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धिका जानना चाहिए। ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त यहाँ भी है। आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें भी वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है, इसलिए उनमें 'इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए' यह कहा है। इन दोनों मार्गणाओंमें जिनका अवक्तव्यपद है, उनके उस पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है,यह स्पष्ट ही है। कार्मणकाययोग और अनाहारक मार्गणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय होनेसे इनमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है । मात्र देवगतिपश्चकका बन्ध करनेवाले जीवोंका इन मार्गणाओंमें उत्कृष्ट काल दो समय ही प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ इनकी असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । तथा यहाँ जिनका अवक्तव्यपद है,उनके इस पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, यह भी स्पष्ट है । इसी प्रकार अन्य मार्गणाओंमें जो विशेषता बतलाई है उसे जानकर घटित कर लेनी चाहिए। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। २७६. अन्तरानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके दो वृद्धिबन्ध और दो हानिबन्धका कितना अन्तरकाल है ? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थितबन्धका कितना अन्तर है ? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण है। दो वृद्धि, दो हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय और जुगुप्साकी अनन्तभागवृद्धि, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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