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________________ भुजगारबंधे कालाणुगमो १८७ २०५. कम्मइ० धुवियाणं भुज० सव्वद्धा। मिच्छ० अवत्त० ओघ । सेसाणं भुज०-अवत्त० सव्वद्धा । णवरि देवगदिपंचग० भुज० जह० एग०, उक्क० संखेंजसम'०। एवं अणाहार। २०६. अवगदवे. भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि०-अवत्त० जह० एग०, उक्क० संखेंजसम । एवं सुहुमसं ० । एसिमसंखेंजरासी तेसि णिरयभंगो । एसि संखेंजरासी तेसिं मणुसि०भंगो । सासण-सम्मामि० मणुसअपजत्तभंगो। _एवं कालं समत्तं २०५. कार्मणकाययोगी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के भुजगार पदके बन्धक जीवों का काल सर्वदा है । मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का काल ओघके समान है। शेष प्रकृतियों के भुजगार और अवक्तव्यपदका काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि देवगतिपञ्चकके भुजगार पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार अनाहारक जीवों में जानना चाहिए। विशेषार्थ-कार्मणकाययोगी जीव अनन्त होते हैं, इसलिए इनमें सब प्रकृतियों के भुजगार पदका काल सर्वदा बन जाता है। मात्र यहाँ मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद ऐसे हीजीवप्राप्त करते हैं जो कार्मणकाययोगके कालमें ऊपरके गुणस्थानोंसे मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं। यह सम्भव है कि ऐसे जीव एक समय तक हों और द्वितीयादि समयों में नहीं हों और यह भी सम्भव है कि वे लगातार असंख्यात समय तक होते रहें, इसलिए यहाँ इसके अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । तथा यहाँ देवगतिपञ्चकके बन्धक जीव एक समयसे लेकर संख्यात समय तक ही हो सकते हैं, इसलिए इनके भुजगार पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। अनाहारक जीवों में यह प्ररूपणा बन जाती है, क्योंकि यहाँ संसार दशामें अनाहारक दशा और कार्मणकाययोगका सहभावी सम्बन्ध है, इसलिए उनमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है। २०६. अपगतवेदी जीवोंमें भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित और अवक्तव्य पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार समसाम्परायिकसंयत जीवोंमें जानना तथा जिन मार्गणाओं में जीवराशि असंख्यात है,उनमें नारकियोंके समान भङ्ग है और जिन मार्गणाओंमें जीवराशि संख्यात है, उनमें मनुष्यनियोंके समान भङ्ग है। सासादनसस्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मनुष्यअपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-कर्मबन्ध करनेवाले अपगतवेदी जीवोंका काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनमें भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। १. ता. प्रतौ 'ए० [उक्क०] संखेजस.' इति पाठः । २. ता० प्रतौ ‘एवं (सिं) असंखेजरासी' इति पाठः। ३. ता० प्रतौ ‘एवं (सिं ) संखेजरासिं' इति पाठः । ४. ता० प्रतौ 'एवं कालं समत्त' इति पाठो नास्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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