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________________ १३४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे आहारदुग-तेजा०-क०-वण्ण०४--अगु०-उप०-णिमि०--तित्थ०-पंचंत०-चत्तारिआउ० भुज-अप्प०-अव४ि० ज० एग०,उक्क० अंतो० । अवत्त [णत्थि अंतरं] । सेसाणं कम्माणं भुज०-अप्पद-०अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० अंतो। १५६. कायजोगीसु धुवियाणं एइंदियभंगो। णवरि अवत्त० णत्थि अंतरं । तिरिक्खगदितिगं भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क. अंतो० । णवरि अवढि० जह० एग०, उक्क० सेढीए असंखे० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० असंखेजा लोगा। मणुसगदितिगं तिण्णि पदा जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० ओघ । सेसाणं भुज०-अप्पद०अवट्टि० णाणा०भंगो । अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । णवरि दोआउ०-विउव्वियछ०] आहारदुग-तित्थ० मणजोगिभंगो। मणुसाउ० ओघं । तिरिक्खाउ० एइंदियभंगो। मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, आहारकद्विक, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर, पाँच अन्तराय और चार आयुओंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इनके अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा इनके अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-इन योगोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार आदि तीन पद कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे हों यह सम्भव है इसलिए सब प्रकृतियाक इन पदाका यह अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। इन योगोका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, इसलिए सब प्रकृतियोंके उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्तके भीतर प्राप्त किया गया है । मात्र पाँच ज्ञानावरणादि ये ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं और जो ध्रुवबन्धिनी नहीं हैं उनका इन योगोंके कालमें दो बार बन्ध सम्भव नहीं है, इसलिए उनके अवक्तव्यपदके अन्तर कालका निषेध किया है । तथा शेष प्रकृतियां परावर्तमान होनेसे उनका इन योगोंके कालमें अन्तर्मुहूर्तका अन्तर देकर दो बार बन्धका प्रारम्भ होना सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। १५६. काययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। तिर्यञ्चगतित्रिकके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। मनष्यगतित्रिकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। तथा अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि दो आयु, वैक्रियिकपटक, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनोयोगी जीवों के समान है। मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है । तथा तिर्यञ्चायुका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। १ ता०प्रतौ 'अवत्त० [एवं ] । सेसाणं' आ०प्रतौ 'अवत्त०सेसाणं' इति पाठः। २ ता०आ०प्रत्योः 'धुवियाणं साभंगो' इति पाठः । ३ ता०आ०प्रत्योः 'उक० संखेजा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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