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________________ १२२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे १५२. पंचिंदि तिरि०पजत्त-जोणिणीसु धुवियाणं भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक० तिण्णि पलिदो० पुवकोडिपुत्तेणब्भहियाणि । थीणगि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि० भुज०-अप्पद० जह० एग०, ओघके समान कहा है । भोगभूमिमें नपुंसकवेद आदिका बन्ध अपर्याप्त अवस्थामें होता है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल कर्मभूमिकी अपेक्षा प्राप्त किया गया है, क्योंकि कर्मभूमिमें एक पूर्वकोटिकी आयुवाले जीवके भवके प्रारम्भमें मिथ्यादृष्टि होनेसे ये पद हों, पुनः सम्यग्दृष्टि हो जानेसे मध्यमें बन्ध न होने से ये पद न हों और भवके अन्तमें पुनः मिथ्यात्वमें चला जानेके कारण बन्ध होनेसे पुनः ये पद होने लगें.यह सम्भव है, इसलिए उक्त प्रकृतियोंके इन दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है। आगे जिन प्रकृतियों के जिन पदोंका यह अन्तरकाल कहा हो,वह इसीप्रकार घटित कर लेना चाहिए। जो पूर्वकोटिकी आयुवाला तिर्यश्च प्रथम त्रिभागमें तीन आयुओंमें से किसी एकका बन्ध करके चारों पद करता है और फिर भवके अन्तमें इनका बन्ध करके चारों पद करता है, उसके उक्त तीनों आयुओंके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्तकाल प्रमाण कहा है । तिर्यश्चायुके अवस्थित पदके सिवा शेष तीन पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक पूर्वकोटिप्रमाण जानना चाहिए, क्योंकि तिर्यश्चायुके तीन पदोंका यह अन्तरकाल दो भवोंके आश्रयसे प्राप्त करनेपर साधिक एक पूर्वकोटिप्रमाण प्राप्त होता है। मात्र इसके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे उसका भङ्ग ज्ञानावरणके समान कहा है। वैक्रियिकषट्क और मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग ओघमें तिर्यञ्चोंकी मुख्यतासे ही प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ ओघके समान जाननेकी सूचना की है। तिर्यश्चगतित्रिकका शेष भङ्ग तो नपुंसकवेदके समान बन जाता है, क्योंकि इनके दो पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कर्मभूमिमें पूर्वकोटिकी आयुवाले तिर्यश्चके ही प्राप्त हो सकता है और अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरणके समान जगणिके असंख्यातवें मागप्रमाण यहाँ भी बन जाता है। मात्र इनके अवक्तव्यपदके उत्कृष्ट अन्तरकालमें फरक है। बात यह है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीव इन तीन प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध करते रहते हैं, इसलिए उनके इनके अवक्तव्यपदका अन्तरकाल सम्भव नहीं है और उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण होती है, अतः इस कायस्थितिके पूर्वमें और बादमें इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद होनेसे इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण प्राप्त होनेसे यह उक्त कालप्रमाण कहा है । पञ्चेन्द्रियजाति आदिका भोगभूमिमें बन्ध प्रारम्भ होनेपर वह निरन्तर होता है, इसलिए वहाँ इनके अवक्तव्यपदका अन्तरकाल सम्भव नहीं है। हाँ,कर्मभूमिमें जो पूर्वकाटिकी आयुवाला जीव प्रारम्भमें इनका अवक्तव्य पद करके और सम्यग्दृष्टि होकर इनका निरन्तर बन्ध करे। तथा अन्तमें मिथ्यादृष्टि होकर और अन्य प्रकृतियोंके बन्धका अन्तर देकर पुनः इनका बन्ध करे,उसके इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १५२ पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और स्त्रीवेदके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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