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________________ बंधसणिया सपरूवणा ७१ पंचणोक० णीचा ०- पंचत० णि० । तं तु० छट्ठाणपदिदं । णामपसत्थाणं णिय० अनंतगुणहीणं । णामअप्पसत्थाणं णाणावरणभंगो । एवं णिरयाणु० । एवं तिरिक्ख ०तिरिक्खाणु० । णाम० सत्थाणभंगो | १५७, मणुस ० - मणुसाणु० उ० बं० पंचणा०छदंसणा-सादावे ० - बारसक०पंचणोक ० -- उच्चा०-- पंचंत० णि० अनंतगुणहीणं० । णाम० सत्थाणभंगो० । एवं मणुसगदिपंचगस्स । १५८. देवगदि० उ० बं० पंचणा० चदुदंसणा०--सादा० - चदुसंज० - पंचणोक०उच्चा० - पंचत० णि० अनंतगुणहीणं० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं देवगदिसंजुत्ताणं पसत्थारणं णामारणं । 2 १५६. बेई० - तेइंदि० - चदुरिं० उ० वं० पंचणा०- णवदंसणा असादा०-मिच्छ०सोलसक० - पंचणोक० - णीचा ०- पंचतं० णिय० अांत०ही० । णाम० सत्थाणभंगो । गोद० उ० बं० पंचणा०-- णवदंसणा०- असादा०-मिच्छ० -- सोलसक० --चदुणोक०णीचा० - पंचत० णि० अत० ही ० । इत्थि० - कुंस० सिया० अांत ० ही ० । णाम० वरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कपाय, पाँच नोकपाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । नामकर्मकी प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मकी प्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है। इसी प्रकार त्यापूर्वी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार तिर्यञ्चगति और तिर्यचत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु यहाँ नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । १५७. मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चारह कपाय, पाँच नोकषाय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मकी प्रकृतियों का भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार मनुष्यगतिपञ्चककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १५८. देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकपाय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इसी प्रकार देवगतिसंयुक्त प्रशस्त नामकर्मकी प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १५६. द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है । न्यग्रोधसंस्थानके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कपाय, चार नोकपाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट १. श्र० प्रतौ० णि० पंचंत० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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