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________________ बंधसण्णियासपरूवरणा ३७ बादर-पत्ते० सिया० अणंतगुणब्भ० । मणुस०-चदुजादि०-असंप०-मणुसाणु०-थावर०सुहुम०-साधार० सिया० । तं तु०। ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०उप०-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । हुंड०-अथिरादिपंच णि । तं तु० । ७६. थिर०ज००तिरिक्ख०-पंचिंदि०-दोसरी०-दोअंगो०-तिरिक्खाणु०-आदाउज्जो०-तस०४-तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । मणुसग०-देवग०-चदुजादि-छस्संठा०छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०-थावर०-मुहुम०-साधार-सुभादिपंचयुग सिया०। तंतु। तेजा०-कम्म०-पसत्थापसत्थ०४-पज्ज०-णिमि० णिय० अणतगुणब्भ० । बादर-पत्तेय. सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं सुभ०-जसगि० । णवरि जस०-सुहुम-साधारणं वज्जं । ७७. अथिर० ज० वं० णिरय-देवगदि-मणुसगदि-चदुजादि-छस्संठा०-छस्संघ०तिण्णिआणु०-दोविहा०-थावरादि४-मुभादिपंचयुग० सिया० । तं तु०। तिरिक्ख०जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, त्रस, बादर और प्रत्येकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। मनुष्यगति, चार जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। हुण्डसंस्थान, और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । ७६. स्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। मनुष्यगति, देवगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और शुभादि पाँच युगलोंका कदाचित् बन्ध करता है। याद बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, पर्याप्त और निर्माणका नियमसे बन्ध करता हे जो अनन्तगुणा अधिक होता है। बादर और प्रत्येकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिके भङ्गमें स्थावर, सूक्ष्म और साधारणको छोड़ देना चाहिए। ७७. अस्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, देवगति, मनुष्यगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार और शुभादि पाँच युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय १. ता० प्रतौ णिमि० अणंतगुण० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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