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________________ ३२० महाबंचे अणुभागबंधाहियारे ५५२. पंचिंदि० स॰भंगो । साददंडओ ओघं । एवं मणुसपञ्ज० - मणुसिणीसु । णवरि संखे कादव्वं । एवं सव्वड ० । णवरि धुवियाणं अंवत्त० णत्थि । सेसाणं' देवाणं णेरइगभंगो । पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक० -भय-दु० -ओरा० - तेजा०क० वण्ण०४ - अगु० - उप० - णिमि० - तित्थ० - पंचंत० सव्वत्थोवा अवत० । अवहि० असंखेजगु० । अप्प० असंखेजगु० । भुज० विसे० । सेसाणं ओघं । पंचिंदियपञ्जत्तरसु वि सेव । वरि ओरालि० सादभंगो । एवं तस० - तसपञ्ज० । 1 1 ५५३. पंचमण० - तिण्णिवचि० पंचणा०-णवदंस० - मिच्छ० - सोलसक०-भय-दु०देव०-ओरा०-वेउ०-तेजा०-क० उ० अंगो० वण्ण०४- देवाणु० -अगु०४- बादर- पञ० पत्ते ०णिमि० - तित्थ० - पंचंत० सव्वत्थोवा अवत्त ० । अवद्वि० असं० गु० । अप्प० असं० गु० । भुज० विसे० । सेसाणं ओघं । दोवचि० तसपञ्जत्तभंगो । ओरालि०मि० पंचिं० तिरि अपज०भंगो । 'णवरि मिच्छ० अवत्त० ओघं० । देवगदि-पंचिंदि० सव्वत्थो ० अवद्वि० । अप्प० संर्खेज्जगु० । भुज० विसे० । एवं कम्मइ० -अणाहार० । उव्वि० का ० देवभंगो। णवरि तित्थ० णिरयभंगो । एवं वेउ०- मि० । आहार०बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। दो आयु, वैक्रियिकषट्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृति भङ्ग ओघसे आहारकशरीरके समान है । सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि संख्यात करना चाहिए । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद नहीं है । शेष देवोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । ५५२. पञ्चेन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । पचेन्द्रियपर्याप्त जीवों में भी यही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीरका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । इसी प्रकार त्रस और सपर्याप्त जीवोंमें जानना चाहिए । ५५३. पाँचों मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओके समान है । दो वचनयोगी जीवों में सपर्याप्त जीवों के समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में पचेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्तको के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है । तथा देवगति और पचेन्द्रियजाति के अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में वैक्रियिककाययोगी । 1 जानना चाहिए । १. ता० प्रतौ णत्थि अंतरं । सेसाणं इति पाठः । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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