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________________ २७८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ४६७. सव्वएइंदि० पुढ०--बादर०-बादर०अप० मणुसाउ० मोघं । सेसाणं सव्वपदा णिय० अत्थि। एवं आउ०--तेउ०--वाउ०--बादर-बादरअप० तेसिं चेव सव्वसुहुम०-सव्ववण-णिगोद०-बादरपत्ते अपज्ज० । एवं णाणाजीवेहि भंगविचयं समत्तं । भागाभागाणुगमो ४१८. भागाभागाणु० दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-णवदंसणा०मिच्छ०--सोलसक०--भय-दु०-ओरालि०-तेजा.-क०--वएण०४-अगु०-उप०-णिमि०पंचत० भुजगारबंधगा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? दुभागो सादिरेगो। अप० दुभागो देसू०। अवहि सन्यजीवाणं असंखेंजदिभागो। अवत्त० सव्वजी० अणंतभा०। सादासाद०--सत्तणोक०--चदुआउ०-चदुगदि-पंचजादि--ओरा०--वेउचि०--छस्संठा०ओरा०-उ० अंगो०-छस्संघ०-चदुआणु०-पर०-उस्सा०--आदाउज्जो०-दोविहा०-तसादिदसयु०-तित्थ०-दोगो० भुज. सव्वजी० दुभा० सादि० । अप्प० दुभा० देसू० । अवहि०-अवत्त० असंखें०भा० । एवं आहारदुगं । णवरि अवहि-अवत्त० संखेंजदिभा० । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि०-ओरा०-ओरा०मि०-कम्मइ०-णqस०सम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। ४६७, सब एकेन्द्रिय और पृथिवीकायिक तथा इनके बादर और बादर अपर्याप्त जीवोंमें मनुष्यायुका भंग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा इनके बादर और बादर अपर्याप्त सथा सब सूक्ष्म, सब वनस्पतिकायिक, निगोद और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। भागाभागानुगम ४६८. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजस र, वणेचतुष्क, अगुरुलघु, उपचात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगारपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अल्पतरपदके बन्धक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं। अवस्थितपदके बन्धक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, चार आयु, चार गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, छह संस्थान, औदारिक आंगोपांग, वैक्रियिक प्रांगोपांग, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसादि दस युगल, तीर्थङ्कर और दो गोत्रके भुजगार पदके बन्धक जीव सब जीवों के साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अल्पतरपदके बन्धक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं । अवस्थित और प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार आहारकशरीरद्विकका भंग है । इतनी विशेषता है कि अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार ओषके समान सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिक १. ता० प्रतौ कायजोगि० ओरालि० मि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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