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________________ अप्पाबहुगपरूषणा २५ ४४२. कम्मइ० ओघं । गवरि चदुआउ० णिरयगदिदुर्ग आहारसरीरं वज सेसं कादव्वं । एवं अणाहार० । आभिणि-मुद०-प्रोधि०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०. उवसम-सासण.--सम्मामिच्छादिहि ति ओघं । णवरि अप्पप्पणो पगदिविसेसो णादव्यो । तेउ० ओघं । णवरि णिरयगदिदुगं वज्ज । एवं पम्माए । सुक्काए ओघं। णवरि दोआउ० णिरयगदिदुगं तिरिक्खगदितिगं च वज । असण्णीसु सव्वतिव्वाणुभाग मिच्छ० । साद० अणंत० । जस०-उच्चा० अणंत० । देव. अणंत० । कम्म० अणंत । तेज. अणंत० । वेउव्वि० अणंत० । उवरि तिरिक्खोघं । एवं उक्कस्सपरत्थाणअप्पाबहुगं समत्तं । ४४३. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सव्वमंदाणु० लोभसंज०। [ मायासंजल० ] अणंतगुणब्भहियं । माणसंज. अणंतगु० । कोषसंज. अणंतगु० । मणपज०-दाणंत० दो वि तु० अणंतगु० । ओधिणा०-ओघिदं०-लाभंत. तिण्णि वि तु. अणंतगु० । सुदणा०-अचक्खु०-भोगंतरा० तिण्णि वि तु० अणंतगु० । चक्खु. अणंत । आभिणि०-परिभो० दो वि तु० अणंतगु० । विरियंत. अणंत० । ४४२. कामणकाययोगी जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें चार आयु, नरकगतिद्विक और आहारकद्विकको छोड़कर शेषका अल्पबहुत्व कहना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतिविशेष जान लेना चाहिए।पीतलेश्यामें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि नरकगतिद्विकको छोड़कर कहना चाहिए । इसी प्रकार पद्मलेश्यामें जानना चाहिए। शुक्ललेश्यामें अोधके समान है। इतनी विशेषता है कि दो आयु, नरकगतिद्विक और तिर्यश्चगतित्रिकको छोड़कर कहना चाहिए। असंज्ञी जीवों में मिथ्यात्व सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे यश कीर्ति और उच्चगोत्रका अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे देवगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। आगे सामान्य तियश्चों के समान भङ्ग है। इस प्रकार उत्कृष्ट परस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ४४३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है -ओघ और आदेश। ओघसे लोभसंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे मायासंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मानसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनापर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण, और भोगान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे चक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे आमिनिबोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे वीर्यान्तरायका अनुभाग अनन्तगुणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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