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________________ २०६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे थिराथिर-सुभासुभ-सुभग--सुस्सर-आदें-जस०-अजस-णिमि०-उच्चा० ज० अज. अह। देवाउ०--आहारदुर्ग ज. अज० खेत्तः । देवगदि०४ ज० खेत०, अज० छच्चों । एवं अोधिदस०-सम्मादि०--खइग०-वेदग०-उवसम०-सम्मामि० । णवरि खइग०-उवसम० किंचि० विसेसो णादव्वो। ३६८. संजदासंज. सादासाद० अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० ज० अज० छच्चों । सेसाणं ज० खेत्त०, अज० छच्चों । देवाउ०-तित्थ० ज० अज० खेत० । असंजदेसु ओघं । प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, 'आदेय, यशःकीर्ति अयशःकीर्ति, निर्माण और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवो ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। देवगतिचतुष्कके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यसिध्याइष्टि जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में कुछ विशेषता जाननी चाहिए। विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध ओघके समान है और ओघसे इन प्रकृतियों के जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान घटित करके बतला आये हैं, अतः यह क्षेत्रके समान कहा है। तथा आभिनिबोधिकज्ञानी आदिका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण है, इसलिए इनके अजघन्य व दूसरे दण्डकमें कही गई सब प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुपमाण कहा है। देवायुका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध तिर्यञ्च और मनुष्य तथा आहारकद्विकका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध अप्रमत्तसंयत जीव करते हैं। यतः इन जीवों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इन प्रकृतियों के दोनों प्रकारके अनुभागके बन्धक जीवो का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। देवगतिचतुष्कका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख तिर्यश्च और मनुष्य करते हैं, अतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा इन जीवों के मारणान्तिक समुद्घातके समय भी इनका बन्ध होता है, अतः इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है । ३६८. संयतासंयत जीवोंमें सातावेदनीय, असातावेदनीय, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियों के जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। असंयतो में ओघके समान विशेषार्थ-संयतासंयतो में सातावेदनीय आदिका जघन्य अनुभागवन्ध मारणान्तिक समु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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