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________________ १७५ फोसणपरूवणा पसत्य-तस०४-थिरादिछ -णिमि०-तित्थ०-उच्चा० उ० खेत्तभं०, अणु० अहः । देवाउ०-आहारदुर्ग ओघं । देवगदि०४ उ० खेत्त०, अणु० छ० । एवं ओघिदंस०सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसम०-सम्मामि० । णवरि खइग०-उवसम०-सम्मामिच्छा. देवग०४ खेतभंगो। उवसम० तित्थय० खेत्तभंगो।। ३६६. अवगद०-मणपज्ज०-संज०-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहुमसंप० खेतभंगो। संजदासंज. हस्स-रदि० उ० अणु० छ० । देवाउ० तित्थय० उ० अणु० खेत । सेसाणं उ० खेत०, अणु० छच्चों । असंजद० ओघं । शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क. स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रका भङ्ग क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अन भागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है । देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें देवगतिचतुष्कका भङ्ग क्षेत्रके समान है । तथा उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए चारों गतिके जीव करते हैं। उसमें भी हास्य और रतिका तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामोंसे स्वस्थानमें और मनुष्यगतिपश्चकका देव और नारकी जीव उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं। इनमेंसे तीन गति के जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और देवोंका कुछ कम आठ बटे चौदह राजप्रमाण होता है। सब मिलाकर यह स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण ही है, इसलिए यहाँ इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है और इसी कारणसे इनके तथा सातावेदनीय आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्तप्रमाण स्पर्शन कहा है। सम्यग्दृष्टि तिर्यश्च और मनुष्य देवोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करते हैं। इसलिए देवगति चतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्तप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। यहाँ अवधिदर्शनी आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनके कथनको आभिनिबोधिकज्ञानी आदिके समान कहा है । मात्र क्षायिकसम्यग्दृष्टि आदि तीन मार्गणाओं में मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, इसलिए इनमें देवगति दुष्कका भङ्ग क्षेत्रके समान कहा है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहनेका भी यही कारण है। ३६६. अपगतवेदी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें क्षेत्रके समान भङ्ग है। संयतासंयत जीवोंमें हास्य और रतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंयत जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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