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________________ बंधसण्णियासपरूवणा १२३ तित्थ० सिया० अणंतगु० । सेसं ओघं । २६८. चक्खु०-अचक्खु० ओघं । किण्णाए आभिणि दंडओ थीणगिदिदंडओ णिरयभंगो। सादादिचदुयुग०--अरदि-सोगं असंजदभंगो । इत्थि०--णवूस० अोघं । सेसं णqसगभंगो। २६६. णील-काऊए पढमदंडओ विदियदंडओ तदियदंडओ अरदि-सोगदंडओ किण्णभंगो । इत्थि० ज० बं० तिरिक्खोघं । मणुस०--देवगदि-दोआणु० सिया० अणंतगु० । णqस०-थीणगिद्धिदंडओ पंचिंदि०दंडओ णिरयोघं । ३००. वेउवि० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-असादा०--मिच्छ०--सोलसक०पंचणोक०--णिरयगदिअहावीसं-णीचा०-पंचंत० णि० अणंतगु० । वेउव्वि०अंगो० आदावं तिरिक्खोघं । सेसं किण्णभंगो । ३०१. तेऊए आभिणि दंडओ परिहार०भंगो । विदियदंडओ ओघं । साद० ज० बं० पंचणा०--छदसणा०--चदुसंज०--भय--दु०--तेजा०--क०--पसत्यापसत्थ०४अगु०४-चादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि०-पंचंत० णि. अणंतगु० । थीणगि०३-मिच्छ०. बारसक०-सत्तणोक०-देवगदि-दोसरीर-दोअंगो०-देवाणु०-आदाउज्जो०-तित्थ० सिया० पाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, दो भानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शेप भङ्ग ओघके समान है। २६८. चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । कृष्णलेश्यामें आभिनिबोधिकज्ञानावरणदण्डक और स्त्यानगृद्धिदण्डकका भङ्ग नारकियोंके समान है। साता आदि चार युगल, अरति और शोकका भङ्ग असंयतोंके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। २६६. नील और कापोत लेश्यामें प्रथम दण्डक, द्वितीय दण्डक, तृतीय दण्डक और अरतिशोकदण्डकका भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है। स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। मनुष्यगति, देवगति, और दो आनुपूर्वीका कदाचित बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नपुंसकवेद, स्त्यानगृद्धिदण्डक और पञ्चन्द्रियजाति दण्डकका भङ्ग सामान्य नारकियों के समान है। ३००. वैक्रियिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियाँ नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियससे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और आतपका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । शेष प्रकृतियों का भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है। ३०१. पीतलेश्यामें श्राभिनिबोधिकज्ञानावरण दण्डक परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है। द्वितीय दण्डकका भङ्ग ओघके समान है। सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करने वाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, बारह कषाय, सात नोकषाय, देवगति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानु, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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