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________________ बंधसण्णियासपरूवणा ११३ २६६. देवेसु सत्तण्णं कम्माणं पढमपुढविभंगो। सादावे० ज० बं० दोगदिएइंदि०-छस्संठा०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०-थावर-थिरार्दिछयुग०-दोगो० सिया० । तं तु० । पंचिं०-ओरालि०अंगो०-आदाउज्जो०-तस-तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । सेसाणं णिरयभंगो। णामाणं तिरिक्खगदितिगं परियत्तमाणियाणं कादब्बं । एइंदि०आदाव-थावर० ओघं । पंचिं०-ओरालि०अंगो०-तस० णिरयभंगो। णाम० सत्याणभंगो। सेसं पढमपुढविभंगो। २७०. भवण-वाण-०-जोदिसि०-सोधम्मीसाणं सत्तण्णं कम्माणं देवोघं । णामाणं हेहा उवरिं देवोघं । णवरि णामाणं अप्पप्पणो सत्थाणभंगो। सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति पढमपुढविभंगो । आणद याव गवगेवज त्ति सत्तण्णं कम्माणं एवं चेव । णामाणं पि तं चेव । णवरि मणुस० ज० बं-पंचणा०-णवदंस०-असाद०-मिच्छ०सोलसक०-पंचणोक०-णीचा०-पंचंत० णि० अणंतगुणभ० । णामाणं सत्थाणभंगो। एवं सव्वसंकिलिहाणं । २७१. अणुदिस याव सव्वह त्ति आभिणि दंडओ देवोघं। साद० ज००पंचणा० २६९. देवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग पहली पृथिवीके समान है। सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, एकेन्द्रियजाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर, स्थिर आदि छह युगल और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है.तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत, त्रस और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। किन्तु नामकर्मकी तिर्यश्चगतित्रिकको परिवर्तमान करना चाहिए। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरका भङ्ग ओघके समान है । पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और त्रसप्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। शेष भंग पहली पृथिवीके समान है। २७०. भघनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पके देवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। नामकर्मके पहले और अन्तकी प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग अपने अपने स्वस्थानके समान है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें सात कोका भङ्ग इसी प्रकार है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग भी उसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार सर्व संक्लेशसे जघन्य बँधनेवाली प्रकृतियोंके सम्बन्धमें जानना चाहिए। २७१. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें आभिनियोधिक ज्ञानावरण दण्डकका १. ता० प्रा० प्रत्योः थावरादि इति पाठः । २. श्रा० प्रती णाम सत्थाणं हेहा इति पाठः। १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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