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________________ २६० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सेसाणं जह• अज० णत्थि अंतरं । पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० तिरिक्खायु० जह० अज० पत्थि अंतरं । सेसाणं जह० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखें । अज० पत्थि अंतरं । मणुसायु० ओघं । बादरपुढवि०अपज्जत्ता मणुसायु० अोघं । सेसाणं जह० अज० पत्थि अंतरं । एवं बादराउ०-तेउ --बाउ०अपज्जत्ता । वणप्फदिणियोद---सव्ववादरवणप्फदि-णियोद-बादरवणप्फदिपत्तेय. तस्सेव अपज्जता० मणुसायु० ओघं । सेसाणं जह० अज० पत्थि अंतरं । ५६४. पंचिंदि०-तस०--पंचमण--पंचवचि०--इत्थि०--पुरिस०--आभि०-सुद०प्रोधि०-मणपजव०-संजद-सामाइ०-छेदो०---परिहार०--संजदासजद---चक्खुदं०-- अोधिदं०-सुक्कले०-सम्मादि०-वइग०-सणिण त्ति एदेसिं मणुसभंगो। णवरि खवगपगदीणं सेढिविसेसो णादव्यो । अवगदवे० सव्वपगदीणं जह• अज० जह० एग०, उक्क० छम्मासं० । एवं सुहमसंप० । सेसाणं णिरयादि याव सम्मामिच्छादिहि त्ति सव्वपगदीणं अप्पप्पणो उक्स्सभंगो। एवं अंतरं समत्तं समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें तिर्यञ्चायुकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके बराबर है। अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है। बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त जीवोंमें मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंको जघन्य और अजघन्य स्थितिके वन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार वादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और बादर वायुः कायिक अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, सब बादर वनस्पतिकायिक, सब बादर निगोद जीव, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और उनके अपर्याप्त जीवों में मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका अन्तर काल नहीं है। ५६४. पञ्चेन्द्रिय, त्रसकायिक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, आभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययशानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और संज्ञी इनका भङ्ग मनुष्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि क्षपक प्रकृतियोंकी श्रेणीविशेष जाननी चाहिए । अपगतवेदी जीवों में सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह म होना है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिए । शेष नरकगतिसे लेकर सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों तक शेष सब मार्गणाओंमें सब प्रकृ तियोंका भङ्ग अपने-अपने उत्कृष्टके समान जानना चाहिए। इस प्रकार अन्तर काल समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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