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________________ १२८ महाबंधे दिदिबंधाहियारे बं० असंखेज्जदिभा० । दोगदि-दोआणुपु० सिया० असंखेज्जदिभा० । २५६. अथिर० जहिबं० पंचिंदि--ओरालि०-तेजा०---का-समचदु०ओरालि अंगो०--वज्जरिस-वएण०४--अगु०४-पसत्थवि० --तस०४--सुभग-सुस्सरआदें --णिमि० णि० ब० असंखेंज्जदिभा० । दोगदि-दोआणु०--उज्जो०-सुभग० सिया० असंखेज्जदिभा० । असुभ-अजस० सिया० । तं तु० । जसगि० सिया. असंखेज्जगुण । एवं असुभ-अजस०।। २६०. गोदे० वेदणीयभंगो अंतराइगं पाणावरणभंगो । २६१. आदेसेण णेरइगेसु पंचणा-णवदसणा० उक्कस्सभंगो । णवरि णियमा बं० । तं तु० समजुत्तरमादि कादण याव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागब्भहियं० । वेदणीयस्स उक्कस्सभंगो। २६२. मिच्छ० ज०हि सोलसक०-पुरिस०-हस्स-रदि--भय-दुगु णि बं० । स्थितिका बन्धक होता है। दो गति और दो आनुपूर्वीका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। २५९. अस्थिरकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो आनुपूर्वी, उद्योत और सुभग इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ और अयश-कीर्ति का कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। यश-कीर्ति का कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अशुभ और अयश-कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २६०. गोत्रकर्मका भङ्ग वेदनीयके समान है और अन्तराय फर्मका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। २६१. श्रादेशसे नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण और नौ दर्शनावरणका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । वेदनीयको मुख्यतासे सन्निकर्ष उत्कृष्टके समान है। २६२. मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव सोलह कपाय, पुरुषवेद, हास्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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