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________________ महाबन्ध अतएव यह अनुमान किया जा सकता है कि उक्त लेख में चष्टन के प्रपीत्र और जयदामन् के पौत्र से रुद्रदामन् के पुत्र दामदजश्री या रुद्रसिंह का ही अभिप्राय होगा। चष्टन का उल्लेख यूनानी लेखक टालेमी ने अपने ग्रन्थ में किया है। यह ग्रन्थ सन् १३० ई. ( शक ५२ ) के लगभग लिखा गया है। रुद्रदामन् के समय के सुप्रसिद्ध लेख में शक ७२ (सन् १५०) का उल्लेख है। रुद्रसिंह के शिलालेख व सिक्कों पर शक १०२ से ११० व ११३ से ११८ - ११८ तक के उल्लेख मिले हैं। शक संवत १०३ का लेख अनेक बातों में प्रस्तुत लेख के समान होने से हमारे लिए बहुत उपयोगी है। जीवदामन् के शक ११६ से १२० तक के सिक्के मिले हैं। क्षत्रप राजाओं के राज्यकाल की सीमाएँ अभी बहुत कुछ गड़बड़ी में हैं इन राजाओं में यह भी प्रथा थी कि राज्य परम्परा एक भाई के पश्चात् उससे छोटे भाई की ओर चलती थी और जब सब जीवित भाइयों का राज्य समाप्त हो जाय, तब नयी पीढ़ी की ओर जाती थी। इससे भी क्रमनिश्चय में कुछ 'कठिनाई पड़ती है । तथापि पूर्वोक्त निश्चित उल्लेखों पर से हमें प्रस्तुतोपयोगी इतनी बात तो विदित हो जाती है कि उक्त लेख दामदजश्री या रुद्रसिंह के समय का है और इनका समय शक ७२ से ११८ अर्थात् सन् १५० से १६७ ई. तक के ४७ वर्षों के भीतर ही पड़ता है। रुद्रसिंह के शक १०३ के गुण्ड नामक स्थान से प्राप्त लेख को देखने से अनुमान होता है कि प्रस्तुत लेख भी उन्हीं के समय का और उक्त वर्ष के आसपास का हो तो आश्चर्य नहीं । अतः प्रस्तुत लेख का काल लगभग शक १०३ (सन् १८१) अनुमान किया जा सकता है। ८. हम 'षट्खण्डागम' के प्रथम भाग की प्रस्तावना में 'षट्खण्डागम' के विषय के ज्ञाता धरसेनाचार्य के विषय में बता आये हैं कि उन्होंने गिरिनगर की चन्द्रगुफा में रहते हुए पुष्पदन्त और भूतबलि को सिद्धान्त पढ़ाया था। जैन पट्टावलियों आदि पर से उनके काल का भी विचार करके हम इस निर्णय पर पहुँचे थे कि उक्त ग्रन्थ की रचना शक ६ (सन् ८७) के पश्चात् हुई थी। अब हम जब गिरिनगर की उक्त गुफाओं और वहाँ के उक्त शिलालेख पर विचार करते हैं तो अनुमान होता है कि सम्भवतः झूनागढ़ की ये ही 'बाबा प्यारा मठ' के पास की प्राचीन जैन गुफाएँ धरसेनाचार्य का निवास स्थल रही हैं। क्षेत्र वही है, काल भी वही पड़ता है। धरसेन की गुफा का नाम चन्द्रगुफा था। यहाँ की एक गुफा का पिछला हिस्सा - चैत्यस्थान - चन्द्राकार है आश्चर्य नहीं जो इसी कारण वही गुफा चन्द्रगुफा कहलाती रही हो आश्चर्य नहीं जो उपर्युक्त शिलालेख उन्हीं धरसेनाचार्य की स्मृति में ही अंकित किया गया हो। लेख में ज्ञान का उल्लेख ध्यान देने योग्य है। यदि यह लेख पूरा मिल गया होता तो जैन इतिहास की एक बड़ी भारी घटना पर अच्छा प्रकाश पड़ जाता । इस शिलालेख की दुर्दशा इस बात का प्रमाण है कि हमारे प्राचीन इतिहास की सामग्री किस प्रकार आज भी नष्ट-भ्रष्ट हो रही है। 1 यह लेख सर्वप्रथम सन् १८७६ में डॉ. बुल्हर द्वारा सम्पादित किया गया था और फोटोग्राफर तथा अंग्रेजी अनुवाद सहित Archaeological Survey of Western India, Vol. 11 में पृष्ठ १४० आदि पर छपा था यही फिर कुछ साधारण सुधारों के साथ सन् १८६५ में स्याही के ठप्पे की प्रतिलिपि व अनुवाद सहित भावनगर के प्राकृत और संस्कृत के शिलालेख' के पृष्ठ १७ आदि पर छपा। रैपसन साहब ने अपने Catalogue of coins of the Andhra Dynasty etc; P. L. XI, No. 40 में इस लेख का संक्षिप्त परिचय दिया है तथा प्रो. लूडर्स ने अपनी List of Brahmi Inscriptions में नं. ६६६ पर इस लेखका संक्षिप्त परिचय दिया है। यह लिस्ट एपीग्राफीआ इण्डिका, भाग १० सन् १८१२ के परिशिष्ट में प्रकाशित हुई है । इस लेख का अन्तिम सम्पादन व अनुवाद आदि राखालदास बनर्जी और विष्णु एस. सुखतंकर ने किया है जो एपीग्राफिया इण्डिका भाग १६, के पृ. २३६ आदि पर छपा है । और इसी के आधार से हमने उसका पाठ लिखा है। उक्त गुफाओं का सर्वप्रथम वर्णन बर्जेज साहब ने किया है, जो उनकी Antiquities of Kutchh and Kathiawar (१८७४-७५) के पृष्ठ १३६ आदि पर छपा है। उनका परिचय हाल ही में श्रीयुत एच. डी. सांकलिया ने अपनी 'The Archaeology of Gujrat' (Bombay 1941) नामक पुस्तक में कराया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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