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________________ ३९६ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे आदे-जस०-अजस-णिमि०-तित्थय -उच्चा-पंचंत० उक्क० जह• अंतो०, उक्क० बे साग. सादि । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०असांताणुबंधि०४-इत्थि०-णवूस-तिरिक्खग०-एइंदि०-पंचसंठा--पंचसंघ-तिरिक्वाणु-आदा०-उज्जो०-अप्पसत्थ -भग-दुस्सर-अणादे०-णीचा० उक्क० णाणाव भंगो । अणु० जह• एग०, उक्कल बे साग० सादि० । तिरिक्ख०-मणुसायु० उक्क० हिदि पत्थि अंतर। अणु० जह• अंतो०, उक्क. छम्मासं देमूणं । देवायु०-आहारस०२ उक्क० अणु० णत्थि अंतर। देवगदि०४ उक्क. पत्थि अंतर । अणु० जह० पलिदो सादि०, उक्क० बेसाग० सादि० । पम्माए सो चेव भंगो। णवरि सगहिदी कादवा । एइंदिय०-आदाव-थावरच वजा । २५३. सुक्काए पंचणा-छदसणा-सादासा-बारसक०-सत्तणोक-मणुसग०--पंचिंदि०--ओरालि --तेजा०--क० --समचदु०--ओरालि०अंगो०--बज्जरिसभ०वएण०४-मणुसाणु-अगु०४-पसत्थ०--तस०४--थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सरआदे०-जस०-अजस०-णिमि०-तित्थय०-उच्चा-पंचंत० उक्क जह० अंतो, उक्क० अहारस साग० सादि । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो०। थीणगिद्धि०३ तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल शानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है । देवायु और आहारक शरीर द्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य प्रमाण है और उत्छ अन्तर साधिक दो सागर है। पद्मलेश्यामें यही भंग है। इतनी विशेषता है कि इनके अपनी स्थिति कहनी चाहिए । और इनके एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। २५३. शुक्ललेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, यश-कीर्ति, अयश कीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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