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________________ २८४ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे गदिय० सत्थाणे वट्टमाणयस्स सागार-जा तप्पागोग्गसंकिलि । देवगदि०४ उक्क० हिदि० कस्स ? अण्ण तिरिक्व० मणुस. सागार-जा० उक्क संकिलि• मिच्छाताभिमुह० । मणुसगदिपंच० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएण. देवस्स वा णेरइगस्स वा सागार-जा० उक्क० संकिलि० मिच्छत्ताभिमुह । मिच्छादिही० मदियभंगो। सएिण. मणजोगिभंगो। ११२. असगणीसु पंचणा-णवदंसणा-असादा--मिच्छत्त-सोलसकगवुस-अरदि-सोग-भय-दुगु-णिरयगदि-पंचिंदि०-वेउविय-तेजा-क०-हुडसंठा-वेरब्बिय अंगो०-वएण०४--णिरयाणु०-अगुरु०४-पसत्य-तस०४-अथिरादिछक्क-णिमि०-णीचा०-पंचंत० उक्त हिदि० कस्स ? अएण. पंचिंदि० सागार-जा० उक्क०संकिलि० । सेसाणं तप्पाओग्गसंकिलि० । णवरि तिगिण आयु० तपा० यशकीर्ति इन प्राकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका जीव जो स्वस्थानमें अवस्थित है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमुख है,वह देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमुख है.वह मनुष्यगति आदि पाँचके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मत्यशानियोंके समान है। विशेषार्थ-मिथ्यात्वमें १६ और सासादनमें २५ की बन्धव्युच्छित्ति होती है। ये ४१ प्रकृतियाँ होती हैं । इनमें मनुष्यायु, देवायु, आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृतिके मिलानेपर कुल ४६ प्रकृतियां होती हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें इनका बन्ध नहीं होता। शेष ७४ प्रकृतियोंका होता है । इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में किस विशेषताके होनेपर होता है। यह मूलमें कहा ही है । देवगति चतुष्कका बन्ध देव और नारकी नहीं करते, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तिर्यश्च और मनुष्य कहा है । तथा मनुष्यगति पञ्चकका बन्ध मिश्र तिर्यश्च और मनुष्य नहीं करते, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका खामी नारकी और देव कहा है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सब गतियों में होता है, इसलिए उनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामी चारों गतिके जीव कहे हैं। ११२. असंही जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, पञ्चेद्रिय जाति, वैक्रिपिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुंड संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, चिगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर पञ्चन्द्रिय जीव जो साकार जागृत है और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तत्यायोग्य संक्लेश परिणामवाला असंही जीव है। इतनी विशेषता है कि तीन मायुभोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला जीव है। आहारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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