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________________ उक्कस्स-श्रद्धाच्छेदपरूवणा २३५ ३४. देवेमु पंचणा०-णवदंस०-दोवेदणीय०-मोहणी०छन्वीसपगदीओ णामस्स एइंदि०-आदाव-थावर० गोदंतराइयं च मूलोघं। दो आयु० सेसणाम. तित्थयरस्स णिरयोघं । भवणवासि-वाणवेंतर-जोदिसिय-सोधम्मीसाण. पंचिंदियजादि-वामणसंठा-ओरालि अंगो०-खीलिय०-असंपत्त०-अप्पसत्थवि०-तस-दुस्सर० उक्क० हिदि• अद्यारस सागरोवमकोडाकोडीअो । अटारस वस्ससदाणि आवाधा। आबाधू० कम्महि० कम्मणिसेगो । सेसाणं पगदीणं देवोघं । णवरि भवण-वाणवेंत०-जोदिसिय तित्थकरं पत्थि । सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति णिरयभंगो। आणद याव सव्वह त्ति सव्वपगदीणं उक्कस्स. हिदि० अंतोकोडाकोडीओ। अंतोसुहु० आबा । [आबाधू० कम्महि कम्म-] णिसेगो । मनुसायु० देवोघं । ३५. एइंदिय-बादरएइंदिय० तस्सेव पज्जत्ता० पंचणाणा -गवदसणाअसाद-मिच्छत्त०-सोलसक०-णदुस-अरदि-सोग-भय-दुगुच्छ०-तिरिक्खगदिएइंदिया-ओरालिय-तेजा-क०-हुडसंठा-वएण०४-तिरिक्खगदिपा-अगुरु०-उपधा०थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साधारण-अथिर-असुभ-दूभग-अणादेज-अजस०-णिमिणणीचागो०-पंचतरा० उक्क हिदि० सागरोवमस्स तिएिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा बे सत्तभागा । अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्मट्टि ] कम्म ३४. देवोंमें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, छब्बीस मोहनीय, नामकर्मकी एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर तथा गोत्र और अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्धादि मूलोघके समान है।दो आयु,नामकर्मकीशेष प्रकृतियाँ और तीर्थंकरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि सामान्य नारकियोंके समान है। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म ईशान-कल्पके देवों में पञ्चेन्द्रिय जाति, वामन संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, कीलक संस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुस्वरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोड़ाकोड़ी सागर है। अठारह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रादि सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें तीर्थकर प्रकृति नहीं है। सानत्कुमारसे लेकर सहसारकल्पतकके देवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। 'पानत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। ३५. एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त जीवोंमें पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश-कीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरका तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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