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________________ श्रज्झवसाणसमुदाहारे पगदि-ट्ठिदिसमुदाहारो पदसमुदा ४१६. परादिसमुदाहारे त्ति । तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दराणि - पमाणाणुगमो पाहुति । पमाणागमेण दुवि० - ओघे० दे० । श्रघेण णाणावर - utte hair पगदीओ ? असंखेज्जलोगपगदी । एवं सत्तणं कम्माणं । एवं या अणाहारगति यादव्वं । एवरि अवगद ० - सुहुमसं० एगेगपरिणद्धार्यं । एवं पमाणागमो समत्तो । ४१७. अप्पाबहुगं दुवि० - ओघे० दे० । श्रघेण सव्वत्थोवा युगस्स पगदी' । गामा-गोदाणं पगदीओ असंखेज्जगुणा । णाणावरणीय दंसणावरणीय- वेदणीय- अंतराइगाणं चदुरहं वि पगदीओ असंखेज्जगुणाओ । मोहणीयस्स पगदी असंखेज्जगुरणाओ । एवं याव अरणाहारगत्ति दव्वं । दिसमुदाहारो ४१८, हिदिसमुदाहारे ति । तत्थ इमाणि तिरिण अणियोगद्दाराणि -- पमागागमो सेढिपरूवरणा अणुकड्डिपरूवणा चेदि । णाणावरणीयस्स जहरिणयाए द्विदीए हिदिबंध ज्भवसारणद्वाराणि असंखेज्जा लोगां । विदियाए द्विदिबंधज्झवसाणहै । तथा तीसरे अनुयोगद्वारमें उनके तीव्र, मन्द अनुभागका विचार किया गया है। इस प्रकार इस अनुयोगद्वारका क्या अभिप्राय है और उसमें कितने विषयोंका संकलन किया गया है; इस बातका विचार किया । २०९ प्रकृतिसमुदाहार ४१६. प्रकृतिसमुदाहारका प्रकरण है । उसमें ये दो अनुयोगद्वार हैं- प्रमाणानुगम और बहुत्व | प्रमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । घ ज्ञानावरण कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ? असंख्यात लोकप्रमाण प्रकृतियाँ हैं । इसी प्रकार शेष सात कमकी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। तथा इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें एकएक भेदसे सम्बद्ध प्रकृतियाँ हैं । इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ । ४१७. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । श्रोघसे श्रयुकर्मकी प्रकृतियाँ सबसे स्तोक हैं । इनसे नाम और गोत्रकर्मकी प्रकृतियाँ श्रसंख्यातगुणी हैं । इनसे शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकर्म इन चारों कर्मोंकी प्रकृतियाँ श्रसंख्यातगुणी हैं। इनसे मोहनीयकर्मकी प्रकृतियाँ श्रसंख्यातगुणी हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार प्रकृतिसमुदाहार समाप्त हुआ । स्थिति समुदाहार ४१८. अब स्थिति समुदाहारका प्रकरण है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैंप्रमाणानुगम, श्रेणिप्ररूपणा और अनुकृष्टि प्ररूपणा । ज्ञानावरणकर्मकी जघन्य स्थितिके स्थिति aartaara स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं । दूसरी स्थितिके स्थिति बन्धाध्यवसाय १. पञ्चसं०] बन्धनक०, गा० १०७ । २. मूक्षप्रतौ लेजा भागा विदियाए इति पाठः । २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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