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________________ २२ महाबन्ध 'अहमिक्को खल सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूवी। ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमित्तं पि ॥'-आचार्य कुन्दुकुन्द अहं प्रत्ययवेद्य मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ. ज्ञानदर्शन स्वभाव हूँ और रूपादि भौतिक गुणों से रहित हूँ। ये सब बाह्म जगत से सम्बन्ध रखनेवाले यहाँ तक कि परमाणु मात्र भी मेरे नहीं हैं। इसी बात को दूसरे शब्दों में उन्होंने यों व्यक्त किया है 'एगो मे सासदो आदा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥'-आचार्य कुन्दकुन्द मेरा आत्मा शाश्वत होकर स्वतन्त्र तो है ही, किन्तु उसका स्वभाव भी एकमात्र ज्ञान-दर्शन है। इसके सिवा मुझ में और जो कुछ भी दिखलाई देता है, वह सब संयोग का फल है। इन प्रमाणों से आत्मा के अस्तित्व पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है। यहाँ मुख्य रूप से आत्मा को ज्ञान-दर्शन स्वभाववाला बतलाया गया है, क्योंकि इनका अन्वय एकमात्र चेतन के साथ देखा जाता है। जहाँ चेतना है वहाँ ज्ञान-दर्शन है और जहाँ ज्ञान-दर्शन है, वहाँ चेतना है। इनकी परस्पर में व्याप्ति है। प्राचीन साहित्य में चेतन के मुख्य नाम तीन मिलते हैं-जीव, आत्मा और प्राणी। जीव यह नाम जीवन क्रिया की प्रधानता से रखा गया है। आत्मन् शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है-आप्नोति व्याप्नोतीति आत्मा-जो स्वीकार करता है या व्याप्त कर रहता है। संसार-अवस्था में जीव इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करता है और कैवल्य लाभ होने पर सबका वह ज्ञाता-द्रष्टा बनता है, इसलिए इसका आत्मा यह नाम भी सार्थक है। और प्राणी कहने से इसके विविध प्रकार के प्राणों का बोध होता है। हमें मनुष्य के शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियों की उपलब्धि होती है। इन द्वारा वह विविध प्रकार के विषयों को ग्रहण करता है। इनके सिवा वह मन से सोचता-विचारता है, श्वासोच्छवास लेता है, शरीर से विविध प्रकार की चेष्टाएँ करता है वचन बोलता है और एक के बाद दूसरे शरीर को धारण करता है। पाँच इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास, आयु, कायबल, वचनबल और मनोबल ये दस प्राण हैं, जिनसे इसका प्राणी यह नाम भी सार्थक है। ये ही दस प्राण व्यवहार से जीवन-क्रिया के प्रयोजक माने गये हैं। इनके द्वारा भौतिक शरीर में जीव के अस्तित्व का ज्ञान होता है। हम पहले इसी जीव के मुक्त और संसारी ये दो भेद करके संसारी जीव के अनेक भेदों का निर्देश कर आये हैं। प्रश्न यह है कि सब जीव एक समान स्वभाववाले होकर भी उनके ये विविध भेद क्यों दिखाई देते हैं? क्या विना कारण के वे इन विविध प्रकार के भेदों को और विविध प्रकार के शील-स्वभावों को धारण कर सकते हैं? जैन दर्शन इसी प्रश्न का उत्तर कर्म को स्वीकार करके देता है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती 'कर्म' के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए 'गोम्मटसार' जीवकाण्ड में कहते 'जह भारवहो पुरिसो वहइ भरं गेहिऊण कावडियं । एमेव वहइ जीवो कम्मभरं कायकावडियं ॥२०१॥' जिस प्रकार भार को वहन करनेवाला पुरुष कावर के सहारे उसको ढोता है, उसी प्रकार कायरूपी कावर का सहारा लेकर यह जीव कर्मरूपी भार का वहन करता है। ये ही कर्म जीव की इन विविध अवस्थाओं के कारण हैं। साधारणतः इस विषय में यह प्रश्न किया जाता है कि गर्भ में माता-पिता के रज-वीर्य के मिलने से क की उत्पत्ति होती है। विश्व के सब संसारी जीव तीन भागों में बटे हए हैं-कछ जीव गर्भज होते हैं, कुछ जीव सम्मूर्छन होते हैं और कुछ जीव उपपादज होते हैं। इनमें से जिन जीवों की उत्पत्ति के जो साधन निश्चित हैं, उन्हीं से उन जीवों की उत्पत्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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