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________________ जहण्ण-परिमाणपरूवणा पुरिस-विभंग-संजदासंजद०-चक्खुदं०-सणिण त्ति । १५७. आभि-सुद०-अोधि० अट्टएणं कम्माणं जह० संखेज्जा । अज असंखेज्जा । एवं अोधिदं०-सम्मादि०-वेदगस० । १५८. तेउ०-पम्मले० सत्तएणं क. जह• संखेज्जा। अजह. असंखेज्जा । आयुग० जह० अज. असंखे । १५६. सुक्कले०-खइग० सत्तएणं क. जह• संखेज्जा। अज० असंखेज्जा । आयु. जह• अज० संखेज्जा । १६०. सासण० सम्मामि० अहएणं कम्माणं सत्तएणं कम्माणं जह• अजह असंखेज्जा । एवं परिमाणं समत्तं । ज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी और संज्ञी मार्गणाओं में परिमाण जानना चाहिए। विशेषार्थ-जो विभङ्गशानी और संयतासंयत जीव संयमके अभिमुख होता है,उसीके सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध सम्भव है। यतः ऐसे जीव संख्यात होते हैं,अतः इन दोनों मार्गणाओं में सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १५७. आभिनिबोधिकशाली, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में आठों कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदसम्यग्दृष्टि मार्गणाओंमें परिमाण जानना चाहिए। १५८. पीतलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीवों में सात कर्मोको जघन्य स्थितिका बन्ध करने वाले जीव संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। विशेषार्थ-सर्वविशुद्ध अप्रमत्तसंयत जीव जो पीत और पद्मलेश्यावाले होते हैं, उनके सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है । इस अपेक्षासे इन दोनों मार्गणाओं में सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात कहे हैं । शेष कथन सुगम है। १५९. शुक्ललेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं तथा आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ मनुष्य ही करते हैं और वे संख्यात होते हैं । यद्यपि अन्य तीन गतियों में सञ्चयकी अपेक्षा ये असंख्यात होते हैं,पर गति और प्रागतिकी अपेक्षा ये संख्यातसे अधिक नहीं होते । यही कारण है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात कहे हैं। इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें या तो देवायुका बन्ध होता है या मनुष्यायु का । इसीसे इसमें आयुकर्म की जघन्य और अंजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले संख्यात कहे हैं। १६०. सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में क्रमसे आठों कर्मों और सात कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात होते हैं। विशेषार्थ-इन दोनों मार्गणाओं मेंसे प्रत्येक मार्गणावाले जीवोंकी संख्या पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कही है। इससे यहाँ सात कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंकी असंख्यात संख्या प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती। इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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