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________________ ३०२ महाबंधे त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो ? उपसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा पारिणामिगो वा । इथि० णवंस-बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो १ ओदइगो वा उवसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा। णवरि णवूस० अबंधगात्ति पारिणामियो वि । पुरिस बंधा-अबंधगा त्ति ओदइगो भावो । तिण्णि वेदाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा णत्थि । एवं इत्थि-णवुसभंगो तिरिक्खायु-तिरिक्खगदि-पंचसंठा० पंचसंघ० तिरिक्खाणु उज्जोवअप्पसत्थवि० दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदं च । पुरिसभंगो मणुसायु-मणुसगदि-समचदु०-बजरिसभ० मणुसाणु० पसत्थवि० सुभग० सुस्सर० आदे० तित्थय० उच्चागोदं उत्पन्न होनेके काल में जो भाव विद्यमान हैं, वे उसके कारणपनेको प्राप्त होते हैं, तो फिर ज्ञानदर्शन,असंयम आदि भी मिथ्यात्वके कारण हो जायेंगे, किन्तु ऐसा नहीं है; कारण इस प्रकारका व्यवहार नहीं पाया जाता। अतएव यह सिद्ध होता है कि मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यादष्टि भाव होता है,कारण इसके बिना मिथ्यात्व भावकी उत्पत्ति नहीं होती (ध० दी०, भा० पृ० २०७) : इससे मिथ्यात्व के बन्धकोंके औदयिक भाव कहा है। मिथ्यात्वके अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक वा पारिणामिक है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेदके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है। अबन्धकोंके कौन भाव हैं ? औदयिक, औपशमिक, क्षायिक वा क्षायोपशमिक है। विशेष—यहाँ उक्त वेदद्वयके अबन्धक, किन्तु पुरुषवेदके बन्धककी अपेक्षा औदायिक भाव कहा है। यहाँ इतना विशेष है कि नपुंसकवेदके अबन्धकोंमें पारिणामिक भाव भी पाया जाता है । पुरुषवेदके बन्धकों,अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है। विशेष-नरक गतिमें आदिके चार ही गुणस्थान होते हैं और पुरुषवेदकी बन्धव्युच्छित्ति नवें गुणस्थानमें होती है, तब पुरुषवेदके अबन्धकका भाव अन्य वेदोंके बन्धका समझना चाहिए । अन्य वेदोंका बन्ध होते हुए पुरुषवेदका बन्ध न होना यहाँ पुरुषवेदका अबन्धकपना है । इस अपेक्षासे अबन्धकके औदायिक भाव कहा है। तीन वेदोंके बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक है । अबन्धक नहीं है। तियच आयु, तियचगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तियेचानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, तथा नीच गोत्रमें स्त्रीवेद तथा नपुंसक वेदके समान भंग जानना चाहिए । अर्थात् बन्धोंके औदयिक भाव हैं; अबन्धकोंके औदयिक, औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक हैं। मनुष्यायु, मनुष्यगति, समचतुरस्त्र संस्थान, वन. वृषभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, तीर्थकर तथा उच्चगोत्र में पुरुषवेदके समान भंग है; अर्थात् बन्धकों,अबन्धकोंके औदयिक भाव है। शेष प्रकृ. १. अणंताणुबंधीणमुदएणेव सासणसम्मादिट्ठी होदि त्ति ओदइयो भावो किग्ण उच्चदे ? आइल्लेसु चदुसु वि गुणट्ठाणेसु चारित्तावरणतिव्वोदएण पत्तासंजमेसु दंसणमोहणिबंधणेसु चारित्तमोहविवक्खाभावा । अप्पिदस्स देसणमोहणीयस्स उदएण उवसमेण, खएण, खओवसमेण वा सासणसम्मादिट्टी ण होदित्ति पारणामिओ भावो। -ध०टी०भा०,पृ०२०७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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