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________________ २० । महावीराष्टक-प्रवचन जनता आती, स्नान-भोजन करती और धन्यवाद देती। जब लोगों के मुख से 'धन्य' की बात नंदन मणियार ने सुनी तो जातिस्मरण ज्ञान हुआ। इतना बड़ा सत्कर्म किया किन्तु निष्काम भाव न रहा, भक्ति न रही । आसक्ति के कारण आज यहाँ हूँ, अन्यथा स्वर्ग में स्वर्ण सिंहासन पर होता। अपनी भूल पर पश्चात्ताप करने लगा। विशुद्ध मन पुन: भक्ति की धारा में बहने लगा। भगवान् का पदार्पण हुआ, राजगृह में हलचल मच गई। भगवान् के पदार्पण की चर्चा सुनी तो दर्शन का भाव जगा । भगवान् के दर्शन करने उछलता, कूदता, फुदकता निकल पड़ा। सम्राट् श्रेणिक भी उसी समय भगवान के दर्शन के लिए राजपरिवार परिषद के साथ जा रहे थे। अचानक घोड़े के पैर के नीचे आ गया मैंढक और कुचला गया, मर गया। भगवान् के दर्शन तो नहीं कर सका। नंदन मणियार के भव में भगवान को पाकर खोया किन्तु मैंढक के भव में पुन: पा लिया। भक्ति की भाव-धारा में मृत्यु हुई और स्वर्ग में जन्म लिया। वहाँ पहँचते ही पूर्व-भव का स्मरण हुआ। पुन: स्वर्ग से धरती पर भगवान् के दर्शन करने आया। _ज्ञाताधर्मकथांग-सूत्र में इस कथा का विस्तृत विवरण है। सौभाग्य है कि दिगम्बर-परम्परा में भी यह कथा यूँ की यूँ है । भागचन्द्रजी ने भी इसे भक्ति के रस में सराबोर होकर गाया। कहाँ कौन पाएगा भगवान् को? भाव है तो भगवान् है। भाव गए तो भगवान् भी चले गए। भाव में ही भगवान् से मिलन है। भागेन्दुजी ने भी स्मरण किया-मैंढक/भक्त दर्दुर मरकर देवता बना, सबसे पहले दर्शन करने पहुँचा : “यदर्चाभावेन प्रमुदिता-मना दर्दुर इह" प्रमुदित मन से अर्चना करते हुए दर्दुर देव बन गया। मैंढक ने कौन-सा काम किया? जिनके जीवन के कण-कण में रम गई भक्ति की धारा। ___“लभन्ते सद्भक्ता: शिव-सुख-समाजं किमु तदा" ऊँचाई पर पहुँचे भक्त रम गए हैं, लीन हो गए हैं भगवान् में । वे अगर भगवत् स्वरूप को पा जाते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है? वस्तुत: भक्ति में मुक्ति है। *** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001376
Book TitleMahavirashtak Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1997
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size3 MB
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