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________________ महावीराष्टक-प्रवचन | ३ द्वितीय श्लोक में है-भगवान् महावीर कषायों से मुक्त हैं। परम विशुद्ध अर्हत् हैं। तृतीय श्लोक में है-भगवान् महावीर देवताओं के भी देवता हैं, देवाधिदेव चतुर्थ श्लोक में है-भगवत्-भक्ति से भगवत्ता पाई जाती है का दिव्य संदेश। पंचम श्लोक में है-परस्पर विरोधी लगने वाले विलक्षण रूप भगवान् महावीर के जीवन में अविरोध भाव से उपस्थित हैं। षष्ठ श्लोक में है भगवान् महावीर के श्रीमुख से प्रवाहित पावन गंगा संसार के कलिमल को विशुद्ध, निर्मल करने वाली है। सप्तम श्लोक में है-महावीर ऐसे जिन अर्थात् विजेता हैं, जिन्होंने अपने ही पुरुषार्थ से विकारों के दलदल को समाप्त करके परम नित्यानंद को पाया है। अष्टम श्लोक में है भगवान् महावीर आधि-व्याधि-उपाधि को समाप्त करने वाले महातिमहान् वैद्य हैं। वे निरपेक्ष भाव से जगत् के आनंद-मंगल करने वाले हैं। एक मात्र शरण्य हैं। ऐसे प्रशस्त भावों में जो भी भक्त भगवत् भक्ति करेगा, भक्ति-स्तोत्र का श्रवण करेगा वह निश्चित ही परम पद को प्राप्त करेगा।। पथ है साक्षीभाव, पाथेय है निरपेक्ष बंधुत्व । पथिक भक्त भगवत्-भक्ति, भगवत्-वाणी को हृदयस्थ करते हुए काम-सुभटों से पराजित न होते हुए अपने ही पुरुषार्थ के बल पर चलेगा, वह कैवल्य-ज्योति को पाकर ज्योतिर्मय बनेगा ही। प्रात: काल की मंगलवेला-भगवत् स्मरण की वेला है। यह पवित्र समय है, क्योंकि भगवत् स्मरण से भगवान की स्मृति में भाव कुछ और के और हो जाते हैं। प्रार्थना के लिए यहाँ तक व्यक्ति आता है कुछ और होता है और प्रार्थना में, प्रभु स्मरण में वह कुछ और ही हो जाता है । “हून मैनु कौन पहचाने, मैं तो गया और का और ।” अब मुझे कौन पहचानेगा मैं तो कुछ और ही हो गया-यह बात शत प्रतिशत सत्य है, देवाधिदेव के दर्शन होते हैं, गुरु के दर्शन होते हैं, तो उस दर्शन से कुछ होना चाहिए। बात तो बाद में, दर्शन पहले। दर्शन होते ही भाव-गंगा बहकर उसमें असंख्य-असंख्य भावतरंगों का संगीत प्रकट होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001376
Book TitleMahavirashtak Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1997
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size3 MB
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