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________________ १७३ ( ५१ ) १३. क्रमशः सुषम-दुषम सुषम व सुषम-सुषम काल की प्रवृत्तियां । १४. फिर सुषम, सुषम-दुषम, दुषम-सुषम, दुषम व अतिदुषम कालों का क्रम । यह सब सुनकर राजा को संतोष । गृह प्रागमन । आयु पूर्ण कर मरण । कूणिक कुमार का राज्याभिषेक । अभयकुमार व वारिषेण । राजकुमारों का तपग्रहण । १७४ संधि-१६ कडवक पृष्ठ १. धर्म में भक्ति के प्रभाव पर करकंडु चरित्र । भारतवर्ब, अंग देश चम्पापुर, धाड़ीवाहन राजा, वसुदत्ता महादेवी। समीप ही कुसुमपुर । १७५ २. एक दिन धाड़ीवाहन का कुसुमपुर आगमन । चौराहे पर पद्मावती सुन्दरी का दर्शन। ३. राजा का पद्मावती के प्रति अनुराग । उसके पिता कुसुमदत्त माली से सम्पर्क व राजा से पद्मावती का वियाह । ४. पद्मावती का शील देखकर राजा का उसके कुल के संबंध में सन्देह । कुसुमदत्त से ज्ञात हुआ कि उसे एक दिन संध्या समय गंगा में बहती हुई पेटिका दिखी। १७६ ५. पेटिका को घर लाकर देखने पर उसमें यह कन्या मिली। पद्म महाद्रह में मिलने से नाम पद्मावती रखा। १७७ ६. राजा ने वह पेटिका मंगवाई जिसमें एक पत्र मिला । उसमें लिखा था कि यह कौशाम्बी के राजा वसुपाल और रानी वसुमती की पुत्री है । इसके गर्भवास से माता को अनेक कष्ट हुए। अतः अशुभ जान गंगा में छोड़ दी गई । ७. पद्मावती महादेवी हई। चम्पापुर में स्वागत।। ८. अन्तःपुर में प्रवाद फैला कि राजा ने माली की नीच कुल की कन्या से विवाह किया। सुनकर देवी को खेद व पिहितास्रव मुनि के समीप गमन । १७८ ६. रानी ने दीक्षा मांगी। उसी समय अन्तःपुर से उसे मनग्ने महादेवी आईं। १७६ १०. वसुदत्ता महादेवी ने मनाकर पद्मावती को घर लौटा दिया और स्वयं तप ग्रहण कर लिया। १७६ ११. वसुदत्ता तप कर स्वर्गलोक गई। इधर पद्मावती को एक रात्रि स्वप्न में हाथी, श्वेत अश्व, वृषभ, श्रीभवन व कल्पवृक्ष दिखाई दिये । प्रातः राजा से निवेदन । १८० १२. राजा ने स्वप्न का फल प्रतापी पुत्र की उत्पत्ति बतलाया। १८० १३. स्वप्नफल सुनकर पद्मावती का सन्तोष । गर्भोत्पत्ति । दोहला कि पुरुषवेश करके राजा के साथ हाथी पर बैठकर सपरिवार, शीतल मंद पवन और वृष्टि होते समय नगर की प्रदक्षिणा करूं। नगर में उत्सव और श्रेष्ठ हाथी का श्रृंगार । १८१ १४. विद्यावेग विद्याधर द्वारा पवन, मेघ और वृष्टि की सृष्टि । सजधज के साथ यात्रा प्रारम्भ । हाथी मदोन्मत्त होकर नगर से बाहर भाग उठा। १८१ हाथी कलिंग देश के दंतीपुर के समीप जा पहुँचा । रानी ने मनाकर राजा को वक्ष की शाखा पकड़ कर उतरने व घर लौटने पर राजी कर लिया। १८२ १५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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