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________________ ( ६ ) आदि नाम अंकित हैं। मंदिर में श्रन्यत्र जी विमलशाह की प्रशस्ति उत्कीर्ण है उसमें तथा नेमिणाहचरि की प्रशस्ति में इस वंश का क्रमश: विधिवत् वर्णन पाया जाता है । यह वंशावली नीना या निन्या के नाम से ही प्रारम्भ होती है और इसमें उसे चावड़ा राजवंश के संस्थापक वनराज का सम-सामयिक कहा गया है। उसके तथा उसके पुत्र लहर को वीरता और बुद्धि से प्रभावित होकर वनराज ने नीना के परिवार को अपनी राजधानी अणहिलवाड़पत्तन (पाटन) में बुलवा लिया था । आदित: यह कुटुम्ब गुजरात की प्राचीन राजधानी श्रीमाल ( भीनमाल ) का निवासी था । उक्त जानकारी पर से मुझे प्रतीत हुआ कि यथार्थतः निद्रान्बय के स्थान पर शुद्ध पाठ नीनान्वय या निन्यान्वय रहा होगा । किन्तु उत्तरकालीन लिपिकार ने उसका अर्थ न समझकर उसे अशुद्ध समझा होगा और उसके स्थान पर उससे मिलता जुलता शुद्ध संस्कृत शब्द 'निद्रान्वय' लिख दिया होगा । वंशावलि में नीना व उसके पुत्र लहर को वनराज (वि०सं० ८०२ ) के मंत्री तथा लहर के पुत्र वीर को मूलराज (वि० सं० ९९९ ) का मंत्री एवं वीर के एक पुत्र नेड्डु को भीम (वि० सं० १०७९) का श्रमात्य व दूसरे पुत्र विमल को भीम का दंडाधिप कहा गया है । किन्तु वनराज और मूलराज के बीच लगभग वो सौ वर्षों के अन्तर को देखते हुए विद्वानों ने उक्त कथन पर सन्देह किया है और यह कल्पना की है कि या तो वीर लहर का पुत्र न होकर उनका वंशज था, अथवा नीना और लहर वनराज के समय न होकर मूलराज के ही काल में हुए। जो हो, किन्तु प्रस्तुत कथाकांश की प्रशस्ति से स्पष्ट है कि मूलराज के समय नीना वंश के सज्जन नामक सत्पुरुष विद्यमान थे और उन्हीं की तीसरी पीढ़ी के वंशजों द्वारा वि० सं० १०७० के लगभग इस कथाकोश की रचना कराई गयी । ( Holy Abu P. 22, 42 & 81 ) । यहां एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह सभ्मुख श्राता है कि नीना के वंश की एक शाखा द्वारा श्वेताम्बर सम्प्रदाय तथा दूसरी शाखा द्वारा दिगम्बर सम्प्रदाय का अनुसरण किया गया था । इससे प्रतीत होता है कि दोनों सम्प्रदायों में मेलजोल था व एक ही परिवार के व्यक्ति अपनी-अपनी रुचि अनुसार एक या दूसरे सम्प्रदाय को ग्रहण कर लेते थे । 'न' श्रौर 'ण' के प्रयोग का विवेचन अपभ्रंश भाषा और सामान्यतः अन्य प्राकृत भाषाओं में वन्त्य और मूर्धन्य अनुनासिक वर्णों प्रर्थात् 'न' और 'ण' के प्रयोग में बड़ी अनियमितता और श्रनिश्चय पाया जाता है। भाषा-विज्ञान के विशारदों का अनुमान है कि ट वर्ग की ध्वनियां भारोपीय परिवार की किसी भी अन्य भाषा में नहीं पाई जातीं । वैदिक भाषा में इनका प्रयोग प्रारम्भ में बहुत कम और पीछे क्रमशः बढ़ता हुआ पाया जाता है। अनुमानतः यह प्रवृत्ति भारत में वैदिक काल में प्रचलित निषाद, द्रविड़ आदि भाषाओं के प्रभाव से आई है । संस्कृत में त वर्ग के स्थान में ट वर्ग की ध्वनियों के आदेश को नियमित कर दिया गया है । किन्तु म० भा० प्रा० भाषाओं श्रर्थात् पालि, प्राकृत और अपभ्रंशों में इनका विशेष प्रयोग पाया जाता है । इन भाषाओं के साहित्य में जहां कहीं 'न' और 'ण' का प्रयोग हुआ है, उसके आधार से कोई नियम बनाना अभी तक सम्भव नहीं हो सका है। अर्द्धमागधी श्रागम की प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में भी यह अनियमितता है, किन्तु उनके सम्पादन में हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार पाठ रखे गये हैं । अन्य जैन प्राकृत ग्रन्थों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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