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________________ मङ्गलाचरणम् तं णमह जो वराहत्तणम्मि फण-मणि-घडत-पडिबिंबो । सेस-ट्ठिअं पि वसुहं वहइ व्च पहाव-संकेतो॥ १४ ॥ हेट-ट्ठिअ-मूर-गिवारणाअ छत्तं अहो इव वहंती। जभइ ससेसा वाराह-सास-दूरुक्खआ पुहवी ॥ १५॥ अंगाइँ विण्हुणो वामणत्तणे विसम-मास-थउडाई। मडहोअर-णपहुप्पंत-भुवण-भरिआई व जति ॥१६॥ जअइ धरमुद्धरंतो भर-णीसारिअ-मुहग्ग-चलणेण । णिअ-देहेण करेण व पंचंगुलिणा महा-कुम्मो ॥१७॥ रक्खर वो रोम-लआ माया-महिलत्तणे महुमहस्स । गूढोअर-तामरसाणुसारिणी भमर-माल व ॥१८॥ सो जअइ जस्स जुवइत्तणम्मि खामोअरोसरंतेहिं । भुवणेहि व थण-जहणाण गारवं किं पि णिवडिअं॥१९॥ सो जअइ जामइल्लाअमाण-मुहलालि-चलअ-परिआलं। लच्छि -णिवसंतेउर-वई व जो वहइ वणमालं ॥२०॥ तं नमत यो वराहत्वे फणामणिघटमानप्रतिबिम्बः । शेषस्थितामपि वसुधां वहतीव प्रभावसंक्रान्तः ॥१४॥ अधःस्थितसूर्यनिवारणाय छत्रमध इव वहन्ती। जयति सशेषा वाराहश्वासदूरोत्क्षिप्ता पृथिवी ॥१५॥ अगानि विष्णोर्वामनत्वे विषममांसस्थपुटानि । अल्पोदरनप्रभवद्भुवनभृतानीव जयन्ति ॥१६॥ जयति धरामुद्धरन भरनिःसारितमुखाग्रचरणेन । निजदेहेन करेणेव पञ्चाङ्गुलिना महाकूर्मः ॥१७॥ रक्षतु वो रोमलता मायामहिलात्वे मधुमथनस्य । गूढोदरतामरसानुसारिणी भ्रमरमालेव ॥१८॥ स जयति यस्य युवतित्व क्षामोदरापसद्भिः । भुवनैरिव स्तनजघनानां गौरवं किमपि निर्वतितम् ॥१९॥ स जयति यामिकायमानमुखरालिवलयवेष्टिताम् । लक्ष्मीनिवेशान्तःपुरवृतिमिव यो वहति वनमालाम् ॥ २०॥ १५. हेठागय° १८. भमरपंतिव्व. १९. थणरमणाण २०. तं णमह for सो जयइ. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001364
Book TitleGaudavaho
Original Sutra AuthorVakpatiraj
AuthorNarhari Govind Suru, P L Vaidya, A N Upadhye, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1975
Total Pages638
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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