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________________ या हताश होकर बैठ जाना ठीक नहीं है । पूर्ण पवित्रता का ध्येय रख कर सतत चलते रहना ही साधक का परम कर्तव्य है । जो चलता है, वह एक-न-एक दिन मंजिल पर पहुँचता ही है । देर सबेर का प्रश्न मुख्य नहीं, मुख्य प्रश्न है-पहुँचने का ! 'मार्गस्थो नावसीदति।' एक दूसरे की उन्नति में, प्रगति में सहयोग देने के लिए अपने को होम देना ही, भारतीय संस्कृति का प्रमुख सन्देश है। जो परस्पर एक दूसरे को भावित करते हैं, सम्मानित करते हैं, सहयोग प्रदान करते हैं, वे देव हैं, वे ही परम श्रेय को प्राप्त होते हैं । 'परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ।' पराधीनता की मनोदशा हर स्त्री पुरुष के लिए त्याज्य है। पराधीनता की मनःस्थिति मानव को भिखारी बना सकती है। सम्राट नहीं; प्रेरित कर्ता बना सकती है, स्वतन्त्र कर्ता नहीं। भगवान महावीर ने साधक के लिए प्रतिदिन अशरण भावना भाने का उपदेश दिया है। उसका यह अर्थ नहीं; जैसा कि समझा जा रहा है कि “हाय मैं मरा ! मेरा कोई सहारा नहीं। मैं अशरण हूँ, अनाथ हूँ।” अशरण भावना का अर्थ है-साधक तू स्वयं अपना शरण है। दूसरे किसी बाह्य शरण की तुझे क्या अपेक्षा है ? तू क्यों कातर-दृष्टि से किसी अन्य से शरण माँगता है। जो कुछ करना है वह स्वयं कर ! तू स्वयं अपना निर्माता है, तुझे दूसरा कौन उठाएगा? तू खुद उठ, दौड़ लगा, और अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर ! जैनदर्शन को तो ईश्वर की भी दीनतापूर्ण परमुखापेक्षिता सह्य नहीं है। राष्ट्र की स्वतन्त्रता का अर्थ सब की अन्ध-समानता नहीं है, अपितु अपनी-अपनी उन्मति एवं प्रगति के लिए समान सुविधा का होना है, प्रगतिपथ की बाधाओं का दूर होना है। स्वतन्त्र राष्ट्र में प्रत्येक व्यक्ति अभ्युदय के लिए स्वतन्त्र है, बन्धन मुक्त है। जो जैसा जितना करना चाहे, कर सकता है, कोई 108 अमर डायरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001353
Book TitleAmar Diary
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1997
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Spiritual, & Ethics
File Size8 MB
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