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________________ कि हार में भी जय का घोष क्षीण नहीं होने देना है। यदि किसी को संघर्षरत संसार में आगे बढ़ना है, तो उसके लिए आवश्यक है कि वह खिलाड़ी बने ! * * * भारतीय अध्यात्म दृष्टि बाहर के आवरणों तक ही आबद्ध हो जाने वाली दृष्टि नहीं है । वह एक पारदर्शी दिव्य दृष्टि है, जो देश-विदेश, जातपांत, स्पृश्यास्पृश्य, ऊँच-नीच, पाप-पुण्य आदि विरोधी द्वन्द्वों के आर-पार मानव हृदय की निर्मलता के दर्शन करती है । वह रावण में भी अन्दर गहराई में छिपे हुए राम को देख लेती है । मानव ही क्यों, भूतमात्र में भगवान का, एक दिव्य समानता का दर्शन अध्यात्म दृष्टि की विशेषता है, जिसकी तुलना इधर-उधर अन्यत्र कहीं हो नहीं सकती । * भगवान् महावीर ने कहा— साधक को मात्रज्ञ होना चाहिए। वह साधक ही क्या, जिसे मात्रा का, सीमा का कोई परिज्ञान न हो ! तप हो, त्याग हो, आचार हो, विचार हो, कुछ भी हो, निरन्तर लक्ष्य में रखो कि वह कितना होना चाहिए ! कितना, भूले कि सर्वनाश ! * * वैद्य औषधि जानता है, किन्तु यदि वह औषधि ( दवा) की मात्रा नहीं जानता है तो वह रोगी को जीवन देगा या मरण ? मात्रा से इधर या उधर दिया गया अमृत भी विष हो जाता है। और ठीक मात्रा में दिया गया विष भी अमृत का काम करता है । इसी संदर्भ में साधक के लिए आचार्य उमास्वाति ने कहा है— 'शक्तितस्त्यागतपसी' अपनी शक्ति के अनुसार ही तप और त्याग अपनाना चाहिए । शक्ति के अनुसार ठीक मात्रा में तप और त्याग स्वीकार करने वाला तीर्थंकर होता है, अन्य नहीं । * * सत्कर्म के लिए, गुरुजनों की ओर से आज्ञा की अपेक्षा, आशीर्वाद की अधिक जरूरत है । आज्ञा नहीं मिलती है, तो अनुज्ञा तो कभी-न-कभी मिलेगी 106 अमर डायरी www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001353
Book TitleAmar Diary
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1997
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Spiritual, & Ethics
File Size8 MB
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