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________________ साक्ष्य-अनुशीलन २१ जैसा कि उपर्युक्त अनुच्छेदों में उल्लेख किया गया है कि गुप्तोत्तर काल में जैन पुराणों की संरचना की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई उसमें किसी विशेष सीमा एवं निश्चित विराम के लिये अवकाश नहीं था। पुराणनामधारी अनेक जैन ग्रन्थ प्रकाशन एवं प्रचलन में आये। कुछेक ग्रन्थों को पुराण संज्ञा द्वारा अभिहित नहीं किया गया है। इन अनेक ग्रन्थों में कतिपय पहले के हैं और कुछ बाद के । कुछ के रचना काल की अवधि सातवीं से दसवीं शती ई० का अन्तर्वर्ती काल है। अन्य पुराणों का काल इस अवधि के उपरान्त निर्धारित होता है । ऐसी स्थिति में इन दीर्घकालिक रचित पुराणों में मात्र उन्हीं पुराणों को समीक्षा का विषय बनाना उचित है जो भारतीय इतिहास और संस्कृति के उस स्तर के अन्तर्गत आते हैं, जिसे सातवीं से दसवीं शती ई० का कहा जाता है। भारत के सांस्कृतिक इतिहास के गठन में इस अवधि का बड़ा ही महत्त्व है । सामाजिक, आर्थिक तथा राजनय विषयक गतिशीलता में इस कालावधि का विशेष योगदान रहा है । इस अवधि की मूलभूत प्रथाएँ एवं परम्पराएँ परिवर्धन एवं संशोधन का विषय बनी थीं। अतएव प्रस्तुत प्रबन्ध की योजना में केवल उन्हीं जैन पुराणों के स्थलों को समीक्षा का विषय बनाया गया है, जिनकी प्रामाणिकता असन्दिग्ध है और जो अपेक्षाकृत अन्य जैन पुराणों के पूर्ववर्ती हैं। जैसाकि विवेचित अध्यायों की योजना एवं परिशीलन से स्पष्ट हो जायेगा कि इन पुराणों के स्थल भारत के तत्कालीन सांस्कृतिक इतिहास का संतोषजनक कलेवर निर्मित कर सकते हैं । हमारे आलोचित जैन पुराण मूलतः तीन हैं। प्रथम, रविषेण कृत पद्म पुराण, इसकी तिथि वि० सं० ७३३ अर्थात् ६७७ ई०, द्वितीय, जिनसेन द्वारा विरचित हरिवंश पुराण, जिसकी तिथि शक सं० ७०५ अर्थात् ७८३ ई० है और तृतीय, महा पुराण है । महा पुराण के दो भाग हैं-आदि पुराण और उत्तर पुराण । आदि पुराण के दो खण्ड हैं-प्रथम खण्ड में एक से पच्चीस और द्वितीय खण्ड में छब्बीस से सैतालिस पर्व हैं। जिनसेन ने एक से बयालिस पर्व एवं तिरालिसवें पर्व के तीन श्लोकों की रचना की है । इसके द्वितीय भाग उत्तर पुराण को जिनसेन के शिष्य गुणभद्र ने (तिरालिसवें पर्व के चौथे श्लोक से तिहत्तर पर्व तक) लिखा है। आदि पुराण और उत्तर पुराण मिलकर महा पुराण बनते हैं । जिनसेन का समय सातवीं शती ई० का अन्तिम भाग और गुणभद्र का समय दसवीं शती ई० का प्रथम भाग है। यह सुविदित एवं सुसम्मत है कि हमारे आलोचित जैन पुराणों के विषयवस्तु को अपनाकर अनेक उत्तरवर्ती जैन पुराणों का सृजन हुआ है। हमारे आलोचित पुराण अपने क्षेत्र के प्राचीन तथा आधारभूत पुराण हैं । इस दृष्टि में आलोच्य पुराण स्रोतभूत एवं प्रमुख हैं और इस कोटि के अनुवर्ती पुराण केवल अंगीभूत ठहरते हैं । इनकी प्राचीनता इसलिए भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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