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________________ धार्मिक व्यवस्था महा पुराण में धर्म्यध्यान के चार भेद वणित हैं-आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय ।' यह धर्म्यधान अप्रमत्त गुणस्थान में होता है, प्रमाद के अभाव से उत्पन्न होता है, पीत तथा पद्म नामक शुभ लेश्याओं के बल से होता है, काल तथा भाव के विकल्प में स्थित है और स्वर्ग एवं मोक्ष रूप फल का प्रदायक है । २ (४) शुक्लध्यान : शुचित्व अर्थात् शौच के सम्बन्ध को शुक्लध्यान संज्ञा प्रदत्त है। शुक्ल तथा परम शुक्लध्यान के भेद से इसके दो प्रकार हैं। शुक्ल के भी पृथक्त्व वितर्क तथा एकत्व वितर्क के भेद से दो प्रकार हैं। इसी प्रकार परम शुक्लध्यान के दो भेद हैं-सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति तथा व्युपरत क्रिया निवति । बाह्य और आध्यात्मिक के भेद से शुक्लध्यान भी दो भागों में बाँटा जाता है। जैनाचार्यों ने ध्यान को अपने ढंग से सिद्ध करने का प्रयास किया है । अपने मत के प्रतिपादन में उन्होंने अन्य मतावलम्बियों के मतों का विद्ववतापूर्ण ढंग से खण्डन किया है। उन्होंने विज्ञानाद्वैतवादी, शून्यवादी बौद्ध, सांख्य, द्वैतवादी और अद्वैतवादियों आदि के मतों का खण्डन करते हुए अन्त में अपने मत अर्थात् स्याद्वाद के आधार पर जीव तत्त्व को नित्य और अनित्य दोनों ही रूप मानकर ध्यान की सिद्धि का मार्ग बताया है। ४. गहस्थ का आचार या श्रावकाचार : जैन धर्म की मान्यतानुसार मुनियों और गृहस्थों के लिए सामान्यतया एक ही धर्म विहित हैं। धर्म के नियम, विधि आदि का कठोरता से पालन करने को महाव्रत की संज्ञा प्रदत्त है, जिसे मुनि पालन करते थे। इन्हीं नियमों और विधियों का शिथिलता से पालन करने को अणुव्रत कथित है, जिसे गृहस्थ या श्रावक ग्रहण करते हैं। मुनियों के लिए कुछ विशेष व्रत थे, जिनका उल्लेख उपर्युक्त अनुच्छेदों में हो चुका है । आश्रम के प्रकरण के अन्तर्गत गृहस्थ आश्रम में गृहस्थों या श्रावकों की विवेचना कर चुके हैं, उनकी १. महा २१।१४१-१५४ २. हरिवंश ५६१५१-५२; महा २१११५५-१६८, २१।१६२-१६३ ।। ३. वही ५६॥५३; महा २१।१६६; पद्म ११।२४३ ४. वही ५६।५३-५४, ५६।५७-११३; महा २१।१६७-१७४, २१।१७८-२१५ ५. वही ५६१५५; महा २१११७४-१७७ ६. महा २१।२४०-२५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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