SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५८ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन उदय, उपशम, क्षय और क्षमोपशम के भेद से कर्मों की अवस्था चार प्रकार की होती है।' हरिवंश पुराण में कर्म की उत्तर-प्रकृतियों की विस्तारशः विवेचना उपलब्ध है ।२ डॉ० मोहनलाल मेहता ने कर्म के ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है-बन्धन, सत्ता, उदय, उदीरणा, उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण, उपशमन, निधत्ति, निकाचन तथा अबाध ।' जैन पुराणों में उल्लिखित है कि जिनशासन के अतिरिक्त अन्यत्र सब प्रकार का यत्न करने पर भी कर्मों का क्षय नहीं होता है। तीन गुप्तियों का धारक एक मुहूर्त में कर्म को क्षीण कर देता है । वस्तुतः परमात्मा का दर्शन उन्हें ही उपलब्ध होता है जिनके कर्म क्षीण हो गये हैं। विपाक और तप से कर्मों की निर्जरा होती है। इसके दो भेद हैं-(१) विपाकजा निर्जरा-इसके अन्तर्गत संसार में भ्रमित जीव का कर्म जब फलदायी होता है तब क्रम से उसकी निवृत्ति होती है। (२) अविपाकजा निर्जरा-इसमें आम आदि की तरह असमय में तप आदि उदीरणा द्वारा शीघ्र निर्जरा होती है। आस्रव का अवरुद्ध होना संवर कहलाता है। इसके भी दो भेद हैं : (१) भावसंवर : संसार की कारणभूत क्रियाओं की अक्रियाशीलता का नामकरण भावसंवर किया गया । (२) द्रव्य संवर : कर्मरूपपुद्गल द्रव्य के ग्रहण का विच्छेद हो जाना द्रव्य संवर का बोधक है । तीन गुप्तियाँ, पाँच समितियाँ, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ, पाँच चारित्न और बाईस परीषहजन्य-ये अपने अवान्तर विस्तार सहित संवर के कारण कथित हैं। अन्य के कारणों का अभाव तथा निर्जरा द्वारा समस्त कर्मों का अत्यन्त क्षय हो जाना मोक्ष का बोधक है। [iv] कर्मों का फल : कर्मानुसार फल प्राप्ति के कारण मनुष्य जिस प्रकार के कर्म करता है उसी प्रकार का फल भी उसे उपलब्ध होता है । अपने पूर्वोपार्जित १. उदयादिविकल्पेन कर्मावस्था चतुर्विधा । महा ६७।८ २. हरिवंश ५८।२२१-२६२ ३. मोहनलाल मेहता-जैन धर्म-दर्शन, वाराणसी, १६७३, पृ० ४८६-४६१; नरेन्द्र नाथ भट्टाचार्य-जैन फिलास्फी : हिस्टोरिकल आउटलाइन, नई दिल्ली, १६७६, पृ० १५४ ४. पद्म १०५।२०४-२०६ ५. हरिवंश ५८।२६३-३०२; महा ५२१५५ ६. बन्धहेतोरभावाद्धि निर्जरातश्च कर्मणाम् । . कात्स्येन विप्रमोक्षस्तु मोक्षो निर्ग्रन्थरूपिणः ॥ हरिवंश ५८।३०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy