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________________ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन (५) जीव : प्रकार एवं स्वरूप : जीव आदि पदार्थों का यथार्थ स्वरूप ही तत्त्व का बोधक है । यह तत्त्व ही सम्यग्ज्ञान का अंग (कारण) है और यही जीवों की मुक्ति का अंग है । सामान्यतः तत्त्व एक प्रकार का होता है, किन्तु जीव एवं अजीव के भेद से दो प्रकार का होता है । जीवों के संसारी जीव एवं मुक्त जीव के भेदानुसार तत्त्व के भी संसारी जीव, मुक्त जीव एवं अजीव भेद निर्मित हुए । संसारी जीव के दो प्रभेद हैं : भव्य जीव और अभव्य जीव । इस प्रकार तत्त्व के - मुक्त जीव, भव्य जीव, अभव्यजीव, अजीव आदि- चार भेद माने गये हैं । अन्य दृष्टि से जीव के दो भेद हुए मुक्त जीव और संसारी जीव । इसी प्रकार अजीव के दो भेद : मूर्तिक अजीव और अमूर्तिक अजीव हैं । अतएव जीव और अजीव के भेदों को मिला देने से तत्त्व के चार भेद हुए । पंच अस्तिकायों (जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म एवं अधर्म ) के भेद तत्त्व के पाँच भेद होते हैं । इसमें काल को सम्मिलित करने पर तत्त्व के छः भेद हो जाते । इस प्रकार तत्त्व के अनेक भेद हो सकते हैं । ३४२ (i) संसारी जीव और उनके भेद : संसारी जीव के सामान्यतया दो भेद हैं - ( १ ) स्थावर, (२) तस । पद्म पुराण में विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है । २ वनस्पतिकायिक, पृथ्वीकायिक आदि स्थावर एवं शेष तस नाम से सम्बोधित होते हैं जो स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और कर्ण आदि पाँच इन्द्रियों से युक्त हैं इन्हें पञ्चेन्द्रिय अभिधा से अभिहित करते हैं । पोतज, अण्डज एवं जरायुज जीवों को गर्भजन्मा, देवों तथा नारकियों को उपपाद - जन्मा और शेष को सम्मूर्च्छन - जन्मा संज्ञा से अभिहित करते हैं । जन्म के आधार पर इनके तीन भेद हैं, परन्तु तीव्र क्लेश से जन्म होने के कारण योनियाँ अनेक कथित हैं । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस तथा कार्मण - ये पाँच शरीर होते हैं । ये शरीर आगे चलकर सूक्ष्मतर होते जाते हैं । औदारिक, वैक्रियिक, शरीर प्रदेशों की अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित हैं । तैजस एवं शरीर उत्तरोत्तर अधिक गुणित हैं और जीवों के साथ अनादिकाल से पाँचों शरीरों में एक साथ केवल चार शरीर तक हो सकते हैं । १. महा २४ । ८६ - ६१; पद्म २।१५५ - १६०, १०५।१४५ - १४८; तुलनीय - तत्त्वार्थसूत्र २1१०-१४; धवला ६।४।१।४५, ६।४।१1७६-७७; पंचास्तिकाय ३७।६६ | १०६-१२२; उत्तराध्ययन ३६।४८ पद्म २।१५६ - १६६, १०५।१४६-१५३ २. Jain Education International आहारक आदि कार्मण - ये दो संलग्न हैं । इन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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