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________________ ३२८ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन (ग) व्यापार और वाणिज्य प्राचीन काल से भारतीय समाज में व्यापार एवं वाणिज्य का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। ऐसी स्थिति में इनका उल्लेख हमारे धार्मिक साहित्यिक एवं आर्थिक ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है । इस प्रकार जैन पुराणों के परिशीलन से भी इन पर विशेष प्रकाश पड़ता है जिसका विवरण निम्नवत् प्रस्तुत है : १. महत्त्व एवं प्रचलन : आलोचित जैन पुराणों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उस समय देश की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी। देश में उत्पादन अधिक होता था, आवश्यकता से अधिक उत्पादन दूसरों को दिया या विक्रय किया जाता था । उत्पादन के विक्रय का कार्य वर्णिक वर्ग करता था । महा पुराण में उल्लेख आया है कि व्यापारी दूसरों द्वारा निर्मित माल में कुछ परिवर्तन कर अपनी मुद्रा (छाप) अङ्कित कर बिक्री करते थे ।' जैन पुराणों में नकली व्यापारियों के विषय में उल्लिखित है कि वे दूसरों से थोड़ी-सी वस्तु लेकर उसमें कुछ परिवर्तन कर व्यापारी बन जाते थे। जैनेतर साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि बेईमान व्यापारी राजस्व की चोरी भी करते थे। ऐसे व्यापारियों के पकड़े जाने पर कठोर राजदण्ड की व्यवस्था थी। व्यापारी के लिए वणिज्', वणिक और वैश्य' शब्द जैन पुराणों में व्यवहृत हुए हैं । कालिदास ने व्यापारियों के विभिन्न प्रकार के संगठनों का उल्लेख किया है-सार्थ, सार्थवाह, शिल्प संघ, नैगम, श्रेष्ठी आदि । इनके काल में एक ही क्षेत्र में कार्यरत कारीगर अपना संघ बनाकर काम करते थे । इनकी श्रेणी ही बैंक का कार्य करती थी। ये श्रेणी धन संग्रहण एवं प्रदायक ऋण का कार्य करती थीं। बौद्ध सूत्रों की भाँति जैन सूत्रों में भी अट्ठारह प्रकार की श्रेणियों का उल्लेख हुआ है। जैन पुराणों के केचिदन्यकृतैरर्थे...."प्रतिशिष्ट्येव वाणिजाः । महा १।६८ २. छायामारोपयन्त्यन्यां वस्त्रेष्विव वणिग्ब्रुवाः । महा १।६६; हरिवश २१७६ ३. मोतीचन्द्र-सार्थवाह, पटना, १६५३, पृ० १७३ ४. पद्म ६।१५४; महा १९६८ ५. वही ५५२६० ६. वही ३।२५७ ७. भगव' तशरण उपाध्याय-वही, पृ० २६२; राइस डेविड्स-कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ' इण्डिया, पृ० ३०७, गायत्री वर्मा कालिदास के ग्रन्थ : तत्कालीन-संस्कृति, वाराणसी, १६६३, पृ० २६३ ८. गायत्री वर्मा-वही, पृ० २६५ ६. जगदीश चन्द्र जैन-वही, पृ० १६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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