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________________ २३६ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन शिष्यों में विषयी, विषयासक्त, हिंसकवृत्ति, कठोर परिणामी निःसार का ग्राहक, अर्थज्ञान की न्यूनता, धूर्तता, कृतघ्ननता, उदण्डता, प्रमादी, ग्रहण शक्ति का अभाव, दुर्गुण ग्राहकता, प्रतिभा की कमी, हठग्राहिता, धारणशक्ति की न्यूनता तथा स्मरणशक्ति का अभाव आदि दुर्गुण कथित हैं।' ८. गुरु-शिष्य सम्बन्ध : आलोचित जैन पुराणों के अनुशीलन से गुरु-शिष्य सम्बन्ध पर प्रकाश पड़ता है । पद्म पुराण में गुरु-शिष्य के आत्मिक सम्बन्ध का उल्लेख मिलता है। गुरु-शिष्य में इतने प्रगाढ़-सम्बन्ध होते थे कि शिष्य गुरु से अपनी सभी बातों को बता देता था। इससे यदि कोई बात शिष्य के प्रति अहितकर होती थी तो गुरु उसको सुरक्षा का मार्ग बता देता था। गुरु के सामने शिष्य व्रत लेते थे। यदि कोई शिष्य इस व्रत को भंग करता था तो ऐसी मान्यता थी कि उसे भारी कष्ट उठाना पड़ता था।' महा पुराण में गुरु-शिष्य की परम्परा को विशाल-प्रवाह के समान कथित है। वस्तुतः गुरु-शिष्य में पिता-पुत्र के समान सम्बन्ध होता था । इसी आत्मीयता के कारण गुरु शिष्य से कहता है कि हे शिष्य ! तू ही मेरा मन और तू ही मेरी जीभ है। जैनाचार्यों ने गुरु-शिष्य के सम्बन्ध को यावज्जीवन निर्वाह करने का निर्देश दिया है । गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर भी गुरु से प्रतिदिन मिलने को निर्देशित किया गया है और कहा गया है कि उनसे अपना हित-अहित बताया करें जिससे गुरुओं द्वारा शिष्यों की समस्याओं का समाधान होता रहे। - महा पुराण में वर्णित है कि गुरु के पास जो शिष्य रहते थे, उनमें से योग्य शिष्य को गुरु अपना उत्तराधिकारी बनाता था । यह शिष्य सभी विद्याओं का ज्ञाता तथा मुनियों द्वारा समादृत होता था। यह शिष्य गुरु का उत्तराधिकारी होने पर गुरुवत् आचरण तथा समस्त संघों का पालन करता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु का उत्तराधिकारी योग्य एवं कुशल शिष्य होता था। उस समय गुरु अपने शिष्यों में से योग्य शिष्य को उपाध्याय-पद पर नियुक्त करता था। उपर्युक्त विवरणों से यह सुनिश्चित हो जाता है कि हमारे आलोच्य पुराणों के प्रणयन काल में गुरु-शिष्य सम्बन्ध बहुत ही उत्तम थे। वे एक दूसरे के सुख-दुःख में भाग लेते थे और उनमें आपस में बहुत ही आत्मीय सम्बन्ध होते थे। १. महा ३८।१०६-११८ ५. महा ४३७१ २. पद्म १५२१२२-१२३ ६. वही ४१।१४ ३. वही ६७१६० ७. वही १८।१७३-१७४ ४. महा १।१०४ ८. वही ६७।३१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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