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________________ राजनय एवं राजनीतिक व्यवस्था १८६ (iv) यान : अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि होने पर दोनों का शत्रु के प्रति जो उद्यम है अर्थात् शत्रु पर आक्रमण आदि करना ही यान कहलाता है। यह यान अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि का फलदायक है।' (v) संश्रय : जिसको कहीं शरण नहीं मिलता है, उसे अपनी शरण में रखना संश्रय (आश्रय) है ।२ (vi) द्वैधीभाव : शत्रुओं में सन्धि और विग्रह करा देना ही द्वैधीभाव है। जैनेतर साक्ष्यों से भी हमारे आलोच्य जैन पुराणों के षड्सिद्धान्त की पुष्टि होती है। इससे यह प्रमाणित होता है कि सभी मतों के आचार्यों ने राजनय में षड्सिद्धान्त को मान्यता प्रदान किया था । १. स्ववृद्धौ शत्रुहानी वा द्वयोर्वाभ्युद्यमं स्मृतम् । अरिं प्रति विभोर्यानं तावन्मात्रफलप्रदम् ॥ महा ६८७० २. अनन्यशरणस्याहुः संश्रयं सत्यसंश्रयम् । महा ६८७१ ३. सन्धिविग्रहयोर्वत्तिद्वैधीभावो द्विषां प्रति । महा ६८७१ अर्थशास्त्र ७।३; महाभारत, शान्तिपर्व ६६०६७-६८; मनु ७।१६०; विष्णुधर्मोत्तर २।१४५-१५०; रघुवंश ८।२१, कामन्दक ६।१६; शुक्र ४।१०६५-१०६६; मानसोल्लास, पृ० ६४-११६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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