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________________ सामाजिक व्यवस्था १४३ [झ] वस्त्र एवं वेशभूषा १. प्रस्ताविक : प्राचीन काल में प्रचलित वस्त्र एवं वेशभूषा का ज्ञान साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के माध्यम से उपलब्ध होता है। विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के वस्त्र एवं वेशभूषाएँ प्रचलित हैं। स्त्री, पुरुष, बच्चे, साधु संन्यासी भिक्षु आदि के वस्त्र एवं वेशभूषाओं में विभिन्नता मिलती है। ग्रामीण, नगरीय, जंगलीय, पर्वतीय, तटवर्तीय इत्यादि क्षेत्रों के निवासियों के रहन-सहन एवं वेशभूषा में भी पर्याप्त अन्तर था। आलोच्य जैन पुराणों के रचनाकाल में सामान्यतः अधोलिखित वस्त्रों के प्रचलन का ज्ञान उपलब्ध होता है --कापसिक (सूतीवस्त्र), और्ण (ऊनी वस्त्र), कीटज (सिल्क), रेशम, मखमल के वस्त्र, चर्म (चमड़े) के वस्त्र, बल्कल (वृक्षों की छालों के वस्त्र), पत्र (वृक्षों के पत्तों के वस्त्र) तथा धातु निर्मित वस्त्र । इन सभी प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख हमारे आलोचित जैन पुराणों में किसी न किसी रूप में हुआ है। आधुनिक युग में प्रचलित रासायनिक वस्त्रों का प्रचलन उस समय नहीं था। २. सामान्य विशेषताएँ : जैन साधु एवं साध्वियों की वेशभूषा में हम जैन धर्म के विकसित रूप का अवलोकन करते हैं। प्रारम्भ में वे मोटे एवं रूक्ष वस्त्र केवल सामाजिक नियमों का पालन करने के लिए धारण करते थे, परन्तु शनैः-शनैः भारतीय संस्कृति की विशेषता के प्रभाव से तपः प्रधान जैन धर्म भी अछूता नहीं रह सका और उसे भी अपने वस्त्र सम्बन्धी कठोर नियमों को शिथिल करना ही पड़ा। यहाँ पर उल्लेखनीय है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में मुनियों के लिए वस्त्रों का निषेध है। साधु-साध्वियां अपने गुह्यांग के आवरणार्थ वस्त्रों का प्रयोग करते थे। महा पुराण में जहाँ मनोज्ञ वेशभूषा पर अधिक बल दिया गया है वहीं विभिन्न शुभ अवसरों पर वेशभूषा की महत्ता भी प्रतिपादित की गयी है । २ वस्त्रों को सुगन्धित करने के लिए पटवास चूर्ण का भी प्रयोग करते थे। पद्म पुराण के अनुसार वस्त्रों के सुरक्षार्थ उसे पाटल में रखते थे। वस्त्रों पर सूती एवं रेशमी धागों से कढ़ाई भी किया जाता था । विभिन्न प्रकार के रंगों से रँग कर रंगीन वस्त्र निर्मित किये जाते थे । सूत से नाना प्रकार के उपकरणों का निर्माण करते थे। इस प्रकार की कला का पद्म पुराण में उल्लेख उपलब्ध है।" १. मोती चन्द्र-प्राचीन भारतीय वेशभूषा, प्रयाग, सं० २००७, भूमिका, पृ० २० २. महा ५२७६, १७।२११ ४. पद्म २७।३२ ३. वही १४१८८ ५. वही २४।५८-५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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