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________________ पाश्चात्य दर्शन की पृष्ठभूमि १३६ भले ही वे लोकप्रिय सामान्य विचार के विपरीत दार्शनिक विचार तर्क-संगत और व्यवस्थित होते हैं । पक्षपात, परम्परागत धारणाओं और व्यक्तिगत संस्कारों से दूषित नहीं होते । दार्शनिक व्यक्ति अपने विचार क्षेत्र में पूर्ण रूप से स्वतन्त्र होता है । वह समाज और शासन अथवा इस प्रकार के व्यक्तियों की, जिनके ऊपर समाज की पूरी श्रद्धा होती है, और जिनके वाक्य समाज के लिए ब्रह्मवाक्य समान होते हैं, चिन्तन नहीं करता । इस प्रकार के चिन्तन के लिए शुद्ध और सात्त्विक बुद्धि से अधिक पवित्र अन्य वस्तु नहीं हो सकती । अतः वह सभी प्रकार के सिद्धान्तों को, फिर और सर्वमान्य क्यों न हों, बुद्धि की कसोटी पर कसकर परखता है और फिर उन्हें स्वीकार करता है। इसका विचार सामान्य मनुष्य के विचार की भांति अस्पष्ट और अन्धविश्वासपूर्ण नहीं होता । वह अपने विषय की गहराई में जाता है और उसके यथार्थ तथा अन्तिम स्वरूप को जानने का प्रयास करता है । चिन्तन की इतनी लम्बी एवं गहरी शक्ति होने पर भी व्यक्ति दार्शनिक बन सकता है और दर्शन के क्षेत्र में कुछ प्रदान कर सकता है । इस सम्बन्ध में पैट्रिक ने लिखा है- It is the art of thinking things though और विल्यम जेम्स ने कहा है-- It is an unusually persistent effort to think clearly. इस प्रकार पाश्चात्य दार्शनिकों ने चिन्तन करने की पद्धति के सम्बन्ध में और चिन्तक व्यक्ति के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है । दार्शनिक अपने विचारों में अनेक प्रकार की विधियों का प्रयोग करते हैं, उनमें से मुख्य दो हैं - आगमन (induction ), और निगमन (deduction) । आगमन की विधि के अनुसार हम अनुभव द्वारा एक जाति के बहुत से विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं । और फिर उनमें व्याप्त नियम और सिद्धान्त को ढूंढ निकालने का प्रयत्न करते हैं । जैसे दुःख का कारण जानने के लिए हम कुछ दुःखी व्यक्तियों का निरीक्षण और अध्ययन करते हैं मोर आवश्यक जांच-पड़ताल करने के बाद यह मालूम करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में जो दुःख है, किसी न किसी विषय का अभाव है, जिसमें उसकी आसक्ति है, इस आधार पर हम यह सिद्धान्त स्थिर करते हैं, कि विषयासक्ति दुःख का कारण है ।' आगमन की विधि में निरीक्षण के अतिरिक्त प्रयोग का भी आधार लिया जाता है । यह विचार करना भूल होगी कि प्रयोग मनोवैज्ञा १ पाश्चात्य दर्शन दर्पण, Jain Education International पृ. ६-१० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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