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________________ ३६ अध्यात्म-प्रवचन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अपने 'न्यायावतार' ग्रन्थ में प्रमाण के फल का कथन । करते हुए कहा है, कि प्रमाण का साक्षात फल अज्ञान-निवृत्ति ही है। अज्ञान-निवृत्ति के अनन्तर होने वाले परम्पराफल के रूप में केवलज्ञान का फल सुख और उपेक्षा है। शेष चार ज्ञानों का फल ग्रहण-बुद्धि और त्याग-बुद्धि है। सामान्य रूप में प्रमाण का फल इतना ही है कि उसके रहते अज्ञान नहीं रहने पाता। जिस प्रकार सूर्य के आकाश में स्थित होने पर अन्धकार का नाश हो जाता है, अन्धकार कहीं ठहर नहीं पाता, उसी प्रकार प्रमाण से अज्ञान का विनाश हो जाता है। इस अज्ञान-नाश का किसके लिए क्या फल है, इसे स्पष्ट करने के लिए बताया गया है, कि जिस व्यक्ति को केवलज्ञान हो जाता है, उसके लिए अज्ञान-नाश का यही फल है, कि उसे आध्यात्मिक सुख एवं आनन्द प्राप्त हो जाता है और जगत के पदार्थों के प्रति उसका उपेक्षा भाव रहता है। दूसरे लोगों के लिए अर्थात छद्मस्थ जीवों के लिए अज्ञान-नाश का फल ग्रहण और त्याग रूप बुद्धि का उत्पन्न होना है। निर्दोष वस्तु को ग्रहण करना और सदोष वस्तु का परित्याग करना। हेय को छोड़ना और उपादेय को ग्रहण करना। इस प्रकार का विवेक अज्ञान के विनाश से ही हो सकता है। यही विवेक सत् कार्य में प्रवृत्ति की प्रेरणा देने के साथ-साथ असत् कार्य से हटने की भी प्रेरणा देता है। यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रमाण का यह फल ज्ञान से भिन्न नहीं है। पूर्वकालभावी ज्ञान उत्तरकालभावी ज्ञान के लिए प्रमाण है और उत्तरकालभावी ज्ञान पूर्वकालभावी ज्ञान का फल है। इस प्रकार प्रमाण और उसके फल की यह परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है। प्रमाण के सम्बन्ध में जो कुछ मुझे कहना था, संक्षेप में मैं उसका कथन कर चुका हूँ। मैंने आपको प्रारम्भ में ही यह बतलाने का प्रयल किया था, कि जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु का और प्रत्येक पदार्थ का अधिगम प्रमाण और नय से होता है। वस्तु भले ही जड़ हो अथवा चेतन, उसके वास्तविक स्वरूप का परिबोध प्रमाण और नय के अभाव में नहीं हो सकता। अतःप्रमाण और नय वस्तु-विज्ञान के लिए परमावश्यक साधन हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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