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________________ प्रमाण-वाद २७ आदि पदार्थ। परन्तु शून्यवादी बौद्ध घट आदि बाह्य पदार्थ को और ज्ञान आदि आन्तरिक पदार्थ को स्वीकार नहीं करता है। उसके विचार में शून्य ही सब कुछ है। इस विश्व में शून्य के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, यही उसका अभिमत है। इसी आधार पर उसे शून्यवादी कहा जाता है। शून्यवादी बौद्ध शून्य को ही सत् मानता है, उसके अतिरिक्त सबको मिथ्या। विज्ञानवादी बौद्ध घट आदि बाह्य पदार्थ की सत्ता स्वीकार नहीं करता। उसके मत में विज्ञान ही सब कुछ है। विज्ञान के अतिरिक्त जो भी कुछ है, वह सब मिथ्या है। वेदान्तदर्शन भी बाह्य पदार्थ को मिथ्या कहता है। वेदान्त के अनुसार एकमात्र ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य समग्र पदार्थ असत् हैं। इन सबके विपरीत जैन दर्शन ज्ञान को सत् स्वीकार करता है और ज्ञान के द्वारा प्रतीत होने वाले घट आदि बाह्य पदार्थ को भी सत् स्वीकार करता है। इसी आधार पर जैन दर्शन के प्रमाण लक्षण में 'स्व और पर' दोनों का समावेश किया गया है। इसका अर्थ है कि प्रमाण अपने को भी जानता है और पर को भी। प्रमाण के स्वरूप और लक्षण का निर्धारण धीरे-धीरे विकसित हुआ है। कणाद ने निर्दोष ज्ञान को प्रमाण कहा था। गौतम के न्याय-सूत्र में प्रमाण सामान्य का लक्षण उपलब्ध नहीं होता, किन्तु उसके समर्थ भाष्यकार वात्स्यायन ने कहा है, कि अर्थ की उपलब्धि में साधन ही प्रमाण है। मीमांसक प्रभाकर ने अनुभूति को प्रमाण कहा है। सांख्य दर्शन में इन्द्रिय-व्यापार के सामान्य लक्षण को प्रमाण स्वीकार किया है। बौद्ध दर्शन में अज्ञात अर्थ के प्रकाशक ज्ञान को प्रमाण कहा गया है।जैन परम्परा के विभिन्न आचार्यों ने भी प्रमाण का विभिन्न प्रकार से लक्षण किया है। जैन न्याय के पिता और अपने युग के प्रौढ़ दार्शनिक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अपने 'न्यायावतार' नामक न्यायग्रन्थ में स्व-पर के निश्चय करने वाले बाधविवर्जित ज्ञान को प्रमाण माना है। आचार्य सिद्धसेन की भाँति आचार्य समन्तभद्र ने भी स्व-पर-अवभासि ज्ञान को प्रमाण कहा है। वादिदेव सूरि ने अपने प्रसिद्ध तर्क-ग्रन्थ 'प्रमाण-नय तत्वालोक' में उसी ज्ञान को प्रमाण माना है, जो स्व-पर का निश्चय कराने वाला हो। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने सुप्रसिद्ध न्याय ग्रन्थ प्रमाण मीमांसा में अर्थ के सम्यक् निर्णय को प्रमाण माना है। जैन तर्क भाषा में उपाध्याय यशोविजय जी ने वादिदेव सूरि के लक्षण को ही स्वीकार कर लिया है। श्वेताम्बर आचार्यों ने प्रमाण-लक्षण का विकास किस प्रकार किया, यह मैंने आपको बताया। दिगम्बर परम्परा के आचार्यों ने भी इस विषय में पर्याप्त चिन्तन किया है। 'परीक्षा-मुख' में उस ज्ञान को प्रमाण माना है, जो स्व और अपूर्व अर्थ का ग्राहक हो। यतिभूषण ने अपने 'न्याय-दीपिका' ग्रन्थ में सीधी भाषा में सम्यज्ञान को ही प्रमाण माना है। इस प्रकार जैनों की उभय परम्पराओं ने घूम फिर कर एक ही बात कही है, कि सम्यक्ज्ञान ही प्रमाण है।जैन-दर्शन के प्रमाण लक्षणों में सम्यक्ज्ञान को प्रमाण माना गया है। सबकी शब्दावली भिन्न होने पर भी सबका अभिप्राय एक ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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