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________________ २२ अध्यात्म-प्रवचन ____ मैं आपसे इतनी बात अवश्य कहूँगा, कि ज्ञानवाद के सम्बन्ध में जैन आचार्यों ने अपने-अपने युग में परिष्कार अवश्य किया है, किन्तु उसका मूल आधार आगम ही रहा है। आगम को आधार बनाकर ही ज्ञान का कहीं पर संक्षेप में तो कहीं पर विस्तार में वर्णन किया गया है। ज्ञान के सम्बन्ध में मैंने यहाँ पर आपको जो कुछ कहा है, उसे आप परिपूर्ण न समझ लें। मैंने तो केवल उसका परिचय मात्र करा दिया है। इस सम्बन्ध में जो सज्जन विशेष जिज्ञासा रखते हैं, उन्हें चाहिए कि वे मूल आगम का और उत्तरकाल के ग्रंथों का स्वाध्याय करके अपने ज्ञान को अभिवृद्ध और विकसित करें।। यहाँ पर मैं एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ, कि जैन दर्शन की मूल दृष्टि क्या है? जब तक आप जैन-दर्शन की मूल दृष्टि को नहीं पकड़ सकेंगे, तब तक आप अधिगत ज्ञान से कुछ भी लाभ नहीं उठा सकेंगे। जैन-दर्शन के अनुसार विश्व के समग्र पदार्थ दो विभागों में विभक्त हैं-जीव-राशि और अजीव-राशि। उक्त दो विभागों में जड़ और चेतन सभी तत्वों का समावेश हो जाता है। यह विश्व क्या है ? जीव और अजीव का समूह। जीव को आत्मा और अजीव को अनात्मा भी कह सकते हैं। दर्शन-शास्त्र की परिभाषा में जीव तथा अजीव को प्रमेय एवं ज्ञेय भी कह सकते हैं। प्रमा का विषय प्रमेय और ज्ञान का विषय ज्ञेय। प्रमाता केवल जीव ही है, अजीव नहीं। जीव ही ज्ञाता द्रष्टा है। वह जीव को भी जानता है और अजीव को भी जानता है। प्रमा और ज्ञान दोनों का एक ही अर्थ है। प्रमा जिसमें हो, वह प्रमाता और ज्ञान जिसमें हो, वह ज्ञाता। प्रमाता जिससे प्रमेय को जानता है-वह प्रमाण है और ज्ञाता जिससे ज्ञेय को जानता है-वह ज्ञान है। प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय-यह त्रिपुटी है तथा ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय यह एक दूसरी त्रिपुटी है। निश्चय नय से विचार करने पर प्रमाता और प्रमाण में अथवा ज्ञाता और ज्ञान में किसी प्रकार का भेद नहीं है। व्यवहार नय से विचार करने पर दोनों में भेद प्रतीत होता है। ___ भारत की दार्शनिक परम्परा को दो विभागों में विभाजित किया जा सकता हैद्वैतवादी और अद्वैतवादी। जैन, सांख्य, योग, नैयायिक, वैशेषिक और मीमांसक द्वैतवादी दर्शन हैं। चार्वाक, विज्ञानवादी बौद्ध और अद्वैतवेदान्ती अद्वैतवादी दर्शन हैं। विश्व में दो तत्वों की सत्ता को स्वीकार करने वाले द्वैतवादी हैं और एक तत्व की सत्ता को मानने वाले अद्वैतवादी हैं। जैन परम्परा में भी कुछ आचार्यों ने अभेद दृष्टि के आधार पर सत्स्वरूप अद्वैत-भाव के स्थापना की चेष्टा की थी, पर उसका अधिक प्रसार नहीं हो सका। क्योंकि अद्वैतवाद का जैन-दर्शन की मूल भावना से मौलिक सामञ्जस्य नहीं बैठता। __ अतः जैन दर्शन मूल रूप में द्वैतवादी दर्शन है। जैन दर्शन-अभिमत मूल में दो तत्व हैं-जीव और अजीव। किन्तु उन दोनों की संयोगावस्था और वियोगावस्था को लेकर तत्व के सात भेद हो जाते हैं-जीव, अजीव, आनव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जीव और अजीव ज्ञेय हैं, आम्रव और बन्ध हेय हैं तथा संवर और निर्जरा उपादेय हैं। मोक्ष तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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