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________________ ज्ञान मीमांसा १९ अनन्त पदार्थ और प्रत्येक पदार्थ के अनन्त गुण और पर्याय केवलज्ञान के दर्पण में प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होते रहते हैं। केवलज्ञान देश और काल की सीमा-बन्धन से मुक्त होकर रूपी एवं अरूपी समग्र पदार्थों का प्रत्यक्ष करता है। अतः उसे सकल प्रत्यक्ष कहते मैं आपसे पहले कह चुका हूँ, कि उपयोग के दो भेद हैं-साकार और अनाकार। साकार, ज्ञान को कहते हैं और अनाकार, दर्शन को। इसे एक-दूसरे रूप में भी कहा जाता है-सविकल्पक और निर्विकल्पक। जो उपयोग वस्तु के विशेष स्वरूप को ग्रहण करता है, वह सविकल्पक है और जो वस्तु के सामान्य स्वरूप को ग्रहण करता है, वह निर्विकल्पक है। यहाँ पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है, कि जैन दर्शन को छोड़कर अन्य किसी दर्शन में तो इस प्रकार का कोई वर्गीकरण नहीं है, फिर जैन दर्शन की इस मान्यता का आधार क्या है? उक्त प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि जैन दर्शन में ज्ञान और दर्शन की मान्यता अत्यन्त प्राचीन है। मूल आगम में हमें दो प्रयोग मिलते हैं-'जाणइ' और 'पासई'। इनका अर्थ है-जानना और देखना। जानना, ज्ञान है और देखना, दर्शन है। दूसरा आधार यह है, कि जैन दर्शन में कर्म के आठ भेद स्वीकार किए गये हैं। उन आठ भेदों में पहला है-ज्ञानावरण और दूसरा है दर्शनावरण। ज्ञान को आच्छादित करने वाला कर्म ज्ञानावरण और दर्शन को आच्छादित करने वाला कर्म दर्शनावरण कहलाता है। इससे यह सिद्ध होता है, कि जैन-दर्शन में ज्ञान और दर्शन की मान्यता बहुत ही प्राचीन है। यह सिद्धान्त तर्क से भी सिद्ध होता है। सर्वप्रथम वस्तु के अस्तित्व का ही बोध होता है, तदनन्तर वस्तु की अनेकानेक विशेषताओं का। इससे भी स्पष्ट है कि दर्शन और ज्ञान दो उपयोग होते हैं। ___ एक प्रश्न यह उठाया जाता है, कि दर्शन और ज्ञान में पूर्व कौन होता है ? इसके समाधान में कहा गया है, कि जहाँ तक छद्मस्थ का प्रश्न है, सभी आचार्य एकमत हैं कि दर्शन और ज्ञान युगपद् न होकर क्रमशः होते हैं। प्रथम दर्शन होता है और पश्चात् ज्ञान होता है। केवली के प्रश्न को लेकर आचार्यों में मतभेद अवश्य है। इस विषय में तीन प्रकार के मत हैं-एक मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान क्रमशः होते हैं। दूसरे मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद् होते हैं। तीसरे मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान भिन्न न होकर अभिन्न हैं। सबसे पहले हमें यह विचार करना चाहिए कि इन तीन मतों का मूल आधार क्या है? आचार्यों के मतभेद का आधार कौनसा ग्रन्थ है अथवा कौन-सी परम्परा है? प्राचीनता की दृष्टि से विचार करने पर सबसे पहले हमारी दृष्टि आगम की ओर जाती है। प्रज्ञापना, आवश्यकनियुक्ति एवं विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है, कि केवली के भी दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते। श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन आगम इस विषय में एकमत हैं। आगम केवली के दर्शन और ज्ञान को युगपद् नहीं मानते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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