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________________ I सम्यक् दर्शन के लक्षण : अतिचार | ३३ε एवं अक्षुण्ण कैसे रखा जाए ? जैसे घर में प्रकाश फैलाने वाला दीपक पवन का झोंका लगने से बुझ जाता है, वैसे ही कुछ दोष हैं, जिनके कारण सम्यक् दर्शन की ज्याति एक बार प्राप्ति के बाद भी, विलुप्त हो सकती है । सम्यक् दर्शन के पाँच दोष बताए गए हैं, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में अतिचार कहा जाता है । सम्यक् दर्शन के पाँच अतिचार होते हैं, जो इस प्रकार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर-पाषंड प्रशंसा और परपाषंडसंस्तव । अतिचार का अर्थ है- किसी भी प्रकार की अंगीकृत मर्यादा का उल्लंघन करना । मेरे कहने का तात्पर्य यह है, कि मनुष्य ने अपने अनियंत्रित जीवन को नियंत्रित रखने के लिए जो मर्यादा ग्रहण की है, आत्मविशुद्धि का जो अंश जागृत किया है, उसको दूषित करना अतिचार कहा जाता है । सम्यक्त्व एवं व्रतों के मूलदोष चार माने जाते हैं—-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार | किसी भी स्वीकृत साधना को भंग करने का जो संकल्प उठता है -- उसे अतिक्रम कहा जाता है, और भंग करने के संकल्प के अनुसार साधन एवं सामग्री जुटाना, व्यतिक्रम कहा जाता है । स्वीकृत साधना को किसी अंश में सुरक्षित रखना और किसी अंश में भंग कर देना, इसको अतिचार कहा जाता है । जब स्वीकृत साधना सर्वथा भंग कर दी जाए, उस स्थिति को अनाचार कहा जाता है । इन चार में से अतिचार तक तो व्रत साधना किसी न किसी रूप में संरक्षित रहती है, परन्तु अनाचार की स्थिति में पहुँचकर वह बिलकुल भंग हो जाती है । मैं आपसे अतिचार के सम्बन्ध में कह रहा था और यह बता रहा था, कि सम्यक्त्व को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है, कि उसको पाँचों अतिचारों से बचाया जाए। क्योंकि ये पाँच अतिचार सम्यक्त्व में मलिनता उत्पन्न करते हैं । यदि सावधानी न रखी जाए और अतिचार रूप दूषण बढ़ता ही चला जाए, तो उस स्थिति में सम्यक्त्व के निर्मल रूप को खतरा उपस्थित हो जाता है । अतः उस खतरे से बचने के लिए यह आवश्यक है, कि साधक सदा सजग और सदा सावधान रहे। एक क्षण का प्रमाद भी हमारे धर्म की सम्पत्ति को नष्ट कर सकता है । जिस अध्यात्म सम्पत्ति को इतने आत्म पुरुषार्थ से उपार्जित किया है, उसे नष्ट हो जाने देना, बुद्धिमत्ता का कार्य नहीं है । अतः अतिचार रूप दोष से बचने का प्रयत्न करते रहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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