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________________ अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २८३ विपरीत एक तत्व-दर्शी व्यक्ति की दृष्टि में जो विष है, वह एक संसारी आत्मा की दृष्टि में अमृत क्यों है? यह सब दृष्टि का खेल है। संसारी आत्मा भोगों में आसक्त होने के कारण, भोगों को ही अमृत समझता है, परन्तु विवेक-दृष्टि की उपलब्धि हो जाने पर वही व्यक्ति उन्हें विष समझने लगता है । आखिर वह विवेक-दृष्टि क्या है ? वह विवेकदृष्टि अन्य कुछ नहीं, सम्यक् दर्शन ही है, जिसके प्रभाव से विरक्त आत्मा को संसारी भोग विष-तुल्य प्रतीत होने लगते हैं। मैं आपसे कह रहा था, कि भारत का अध्यात्मवादी चिन्तन और भारत का अनुभवमूलक वैराग्य प्रत्येक जीवन को अमृत ही समझता है और अमृत रूप में ही देखता है। वह अपने अन्दर तो अनन्त ज्योतिपुंज एवं अनन्त शक्तिमान परमात्मा के दर्शन करता ही है, किन्तु दूसरों के जीवन में भी वह उसी विराट और विशाल सत्ता का दर्शन करता है। भारत का अध्यात्मवादी साधक किसी को कष्ट या पीड़ा देने में स्वयं ही कष्ट और पीड़ा का अनुभव करता है। इसका अर्थ इतना ही है, कि अहिंसा रूप परब्रह्म सभी में परिव्याप्त है। इसी आधार पर एक का सुख, सबका सुख है और एक का दुःख, सबका दुःख है। अध्यात्म-साधना के क्षेत्र की यह भावना इतनी उज्ज्वल एवं उदात्त है, कि नीची भूमिका के लोग इसका अनुभव नहीं कर सकते । आप किसी को भी दान दीजिए, आप किसी की भी सेवा कीजिए, किन्तु उसे दीन-हीन समझकर नहीं, बल्कि यह समझकर कीजिए कि यह भी भी मेरे जैसा एक चेतन है । भारतीय संस्कृति इससे भी ऊँचे आदर्श में विश्वास रखती है। वह कहती है कि--सेवा करते समय यह भाव रहना चाहिए, कि हम किसी तुच्छ व्यक्ति की नहीं, अपितु एक प्रभु की सेवा कर रहे हैं । यदि दान देने में माधुर्य नहीं है, यदि सेवा करने में माधुर्य नहीं है, तो वह दान और सेवा अमृत होकर भी विष ही है। भारत का अध्यात्मवादी दर्शन कहता है, कि जो भी कुछ करो, माधुर्य के साथ करो, भावना के साथ करो । दान करो, तो भावपूर्वक करो। शील का पालन करो, तो भावपूर्वक पालन करो। तप करो, तो भावपूर्वक करो । भावना के अभाव में दान, शील और तप अमृत होकर भी विष हैं। भारत की अध्यात्म-साधना विष की साधना नहीं, अमृत की साधना है। भारत का अध्यात्मवादी चिन्तन स्पष्ट रूप से यह कहता है, कि सब में शुभ का ही दर्शन करो, किसी में अशुभ का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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