SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक् दर्शन के भेद | २१७ विशिष्ट पदों को भी संसार की संज्ञा देता है और उनसे ऊपर उठने की प्रेरणा देता है। वह कहता है कि भले ही तीर्थंकर पद सब पदों से श्रेष्ठ हो, किन्तु मूलतः वह भी ससार की ही एक स्थिति विशेष है और मोक्ष पाने के लिए उसको छोड़ना भी परमावश्यक है। यह एक वीतराग दर्शन एव अध्यात्म दर्शन की ही विशेषता है, कि वह संसार की किसी भी स्थिति को मोक्ष की स्थिति मानने को तैयार नहीं है । वह बन्धन को बन्धन स्वीकार करता है और कहता है, कि जब तक किसी भी प्रकार का बन्धन है, मोक्ष नहीं मिल सकता। साधक के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है, कि वह बन्धन से विमुक्त कैसे हो? बद्ध कर्म को शीघ्र से शीघ्र कैसे क्षीण किया जाए एव कैसे उसे दूर किया जाए ? उदय में आए हुए कर्म को भोगकर नष्ट करने का मार्ग तो बहुत लम्बा मार्ग है और कई उलझनों से भरा हुआ भी है । अतः इसके लिए एक दूसरा उपाय बतलाया गया है, जिससे बद्ध कर्म से बहुत शीघ्र छुटकारा मिल सकता है और वह उपाय है-उदीरणा का। उदीरणा क्या वस्तु है, उसके स्वरूप को समझना भी परम आवश्यक है। उदीरणा के मर्म को समझे बिना और तद्नुकुल साधना किए बिना, बद्ध कर्मों से शीघ्र छुटकारा नहीं मिल सकता। ___ कहा जाता है, कि जब चरम तीर्थंकर भगवान महावीर अपनी कठोर साधना में संलग्न थे, उस समय आर्य क्षेत्र एवं आर्य देश में 'घोर तपस्या एवं कठोर साधना करते हए भी एक बार उनके मन में यह विचार उठा, कि मुझे आर्य देश छोड़कर अनार्य देश में जाना चाहिए, जिससे कि वहाँ पहुँचकर मैं अपने कर्मों की उदीरणा करके शीघ्र ही इस भव-बन्धन से विमुक्त हो जाऊँ। कर्मों की उदीरणा की यह प्रक्रिया बहुत ही सूक्ष्म एवं विचित्र है। तीर्थंकर या अन्य भी कोई महान् साधक जब आर्य देश में रहता है, तो वहाँ उसे सहज में ही पूजा एवं प्रतिष्ठा के सुन्दर प्रसंग मिलते रहते हैं और जय-जयकार की मधुर स्वर लहरी उनके चारों ओर दिग-दिगन्तरों में गंजती रहती है और भक्तों की भक्ति का ज्वार उमड़ता रहता है। इस स्थिति में साधक यदि पूर्ण जागृत नहीं है, तो अनुकूलता पाकर वह राग में फंस सकता है किन्तु अनार्य देश एवं अनार्य क्षेत्र में पहुँचकर, जहाँ उसका कोई परिचित नहीं होता, जहाँ कोई उसका भक्त नहीं होता, जहां कोई उसकी पूजा एवं प्रतिष्ठा करने वाला नहीं होता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy